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________________ नीति वाक्यामृतम् अर्थ :- जिस प्रकार नदी का पूर उसके तटवर्ती वृक्षों को उखाड़ फेंकता है उसी प्रकार प्रियवादी, मधुर । भाषी भी, बुद्धिवन्त राजा शत्रु को विश्वास पात्र बना देते है पुनः पुन; विश्वासपात्र बनकर उसे अवसर पाकर नष्ट कर देता है। नीतिवान राजा या पुरुष का कर्तव्य है कि न्याय-युक्त योग्य वचन बालक भी कहे तो ग्रहण कर लेना चाहिए। विदुर विद्वान ने भी कहा है : लघु मत्वा प्रलापेत बालाच्चापि विशेषतः । यस्सा भवति तशाह्यं शिलाहारी शिलं यथा ॥1॥ अर्थ :- जिस प्रकार खेत में से ऊमी (धान्य की बाल) को एक-एक कर संचय कर लेता है कृषक, उसी प्रकार चतुर मनुष्य को सारभूत बातें बच्चों से भी ग्रहण कर लेना चाहिए । लघु समझकर न्याय युक्त वार्ता की अवहेलना नहीं करना चाहिए ।। अब इसी का दृष्टान्त व निरर्थक वाणी से हानि बतलाते हैं : रवे रविषये किं न दीपः प्रकाशयति ॥156 ॥ अल्पमति वातायन विवरं बहू नुपलम्भयति ॥157॥ पतिंबरा इव परार्थाः खलु वाचस्ताश्च निरर्थकं प्रकाश्यमानाः शपयन्त्यवश्यं जनयितारम् 158॥ अन्वयार्थ :- (रवे:) सूर्य के (अविषये) नहीं जाने योग्य क्षेत्र में (किं) क्या (दीपः) प्रदीप (न) नहीं (प्रकाशयति) प्रकाशित करता है? करता है |1156 ।। (अल्पम्) छोटी (अपि) भी (वातायनविवरम्) खिड़की का द (बहून्) बहुत पदार्थों को (उपलम्भयति) प्राप्त करती है - दिखाती है (पतिम्बरा) कन्या (इव) समान (परार्थाः) दूसरों को (खलु) निश्चय से (बाच:) वक्ता की वाणी संतोषकर होती है, (च) और (निरर्थकम्) यदि अप्रासंगिक (प्रकाश्यमानाः) कथन करे तो (अवश्यम्) अवश्य ही (जनयितारम्) वक्ता को (शपयन्ति) तिरस्कारी होती है । विशेषार्थ :- जिस स्थान में सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँचता वहाँ लघु दीप प्रकाश करता है उसी प्रकार महापुरुषविद्वान के गम्य न हो वह बात-युक्ति लघुवयस्क व लघुबुद्धि वाले से भी प्राप्त हो जाती है । क्योंकि नन्हा-सा झरोखा भी कक्षवर्ती बडे-बड़े पदार्थों को दिखाने में सक्षम होते हैं । बालक या अज्ञ भी विशेष युक्ति दर्शा सकता है । अतः किसी की अवहेलना करना उचित नहीं है । हारीत विद्वान ने कहा है : गवाक्ष विवरं सूक्ष्मं यद्यपि स्याद्विलोकितम् । प्रकाशयति यद्भरि तद्वद् बालप्रजल्पितम् ।।1।। अर्थ :- जिस प्रकार छोटा-सा रोशनदान भी बहुत सी बड़ी वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है उसी प्रकार यदा-कदा बाल वार्ता भी महत्वपूर्ण युक्तियुक्त सिद्ध होती है । जिस प्रकार विवाह योग्य कन्याएँ अपनी इच्छानुसार पतिवरण कर उसके इष्ट की सिद्धि करती हैं उसी प्रकार श्रेष्ठ वक्ताओं का वचन भी श्रोताओं की मनोभिलाषा तप्त करने वाली होती है । वर्ग विद्वान ने भी किया है। 291
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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