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नीति वाक्यामृतम्
नदी का वेगप्रथम अपने तट पर आसीन वृक्षराजि को जडों-चरणों का प्रक्षालन करता है, पुनः उन्हें जड़ से उन्मूलन कर देता है । इसी प्रकार बुद्धिशाली महीपति को बलवान शत्रु को प्रथम सम्मान दे सन्तुष्ट करे पुनः ५ बध करने में प्रवृत्त होवे ।। शुक्र विद्वान ने यही सिद्धान्त बताया है:
क्षालयन्नपि वक्षाहीन्नदीवेगः प्रणाशयेत् ।
पूजयित्वाऽपि यद्वच्च शत्रुर्वध्यो विचक्षणः ॥1॥ विजयाभिलाषी नृप को शत्रु से प्रियवचन बोलना चाहिए । तथा विडाल से समान चेष्टा करनी चाहिए । जब शत्रु पूर्णतः विश्वस्त हो जावे, तब उस पर आक्रमण कर उसे धराशायी करे । विडाल चूहे की ताक में छुप कर देखता है जब वे विश्वस्त हो कूदते हैं, पकड़ कर नष्ट कर देता है । राजनीति भी इसी प्रकार सफल होती है । परन्तु यह एकान्त नियम नहीं है ।। शत्रु विनाश के ज्ञाता को लाभ का दृष्टान्त और नैतिक कर्तव्य :नाल्पं महद्वापक्षेपोपायज्ञस्य ।। पाठान्तर-नाल्पं महद्वाप्यकापापायज्ञस्य 153 |
नदीपूरः सममेवोन्मूलयति तीरजतृणांहिपान् 154॥
युक्तमुक्तं वचो बालदपि गृह्णीयात् ॥155 । अन्वयार्थ :- (अपक्षेप:) शत्रुविनाश (उपायज्ञः) उपाय के ज्ञाता को (अल्प:) हीन शक्ति (वा) अथवा (महद्) महान् शक्ति का (न) कोई महत्त्व नहीं है ।1154 ॥ (नदीपूरः) नदी का पूर (समम) एक साथ (एव) ही (तीरज) तट पर उत्पन्न (तणान्) घास को (अंध्रिपान) वक्षों को (उन्मलयति) उखाड़ फेंकता है । (य युक्तिसंगत (उक्तं) कहा (वचः) वचन (बालात्) बच्चे से (अपि) भी (गृह्णीयात्) ग्रहण करना चाहिए ।।
विशेषार्थ :- संधि-विग्रहादि के ज्ञाता के समक्ष निर्बल हो सबल शत्रु अनायास वश हो जाता है । शुक्र विद्वान ने भी कहा है :
वधोपायान् विजानाति शत्रूणां पृथिवीपतिः ।
तस्याग्रे च महान् शत्रुस्तिष्ठ ते न कुतो लघुः ॥1॥ अर्थ :- जो राजा शत्रुबध के उपाय भलीभांति जानता है । उसके सामने महान प्रचुर सैन्यादि सम्पन्न शत्रु भी नहीं ठहर सकता, पुनः हीनशक्ति वाले की बात ही क्या ?
जिस प्रकार नदी तीव्र वेग-प्रवाह तटवर्ती वृक्षों तृणों को एक साथ उन्मूलन कर देता है, उसी प्रकार शत्रु विनाश के उपायों का ज्ञाता विजयेच्छु नृप बलवान शत्रुओं को भी जड़मूल से नष्ट कर देते हैं । गुरु विद्वान ने भी कहा है :
पार्थिवो मृदुवाक्यैर्यः शत्रुनालापयेत् सुधीः । नाशं नयेच्छ नैस्तांश्च तीरजान् सिन्धुपूरवत् ॥
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