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नीति वाक्यामृतम्
अचलं प्रोन्नतं योऽत्ररिपुं याति यथाचलम् ।
शीर्णदन्तो निवर्तेत स यथा मत्तवारणः ॥1॥ अर्थात् जिस प्रकार मदोन्मत्त हस्ती विशाल समुन्नत पर्वत का भेदन करता है, परन्तु जब उसके दन्त (खींसे) टूट जाते हैं तब हताश वापिस आता है, उसी प्रकार जो राजा अपनी शक्ति, सैन्यबल और कोषबल न देखकर बलवान राजा के साथ युद्ध ठानता है उसे अपनी शक्ति नष्ट करके परास्त होकर वापिस लौटना पड़ता है ।
विजिगीषु नृपति का कर्तव्य है कि जब तक अनुकूल परिस्थितियाँ, साधन प्राप्त न हों तब तक बलवान शत्रु के साथ साम नीति का प्रयोग करे | भागुरि ने कहा है :
बलवन्तं रिपुं दृष्ट्रा तस्य छन्दोऽनुवर्तयेत् ।
वलाल्या स पुनस्तं च भिन्द्यात कम्भमिवाश्मनः ॥1॥ अर्थ :- विजय के इच्छुक राजाओं का कर्तव्य है शत्रु को वलिष्ठ देखकर उसकी आज्ञानुसार चलना चाहिए। जिस समय स्वयं शक्तिशाली बन जाय, उसी समय आज्ञानुसार चलना चाहिए । जिस समय स्वयं शक्तिशाली बन जाय, उसी समय पत्थर से घड़े फोड़ने के समान शत्रु को नष्ट कर दें । समय का मूल्य है 1149 || उक्त कार्य का दृष्टान्त व अभिमान से हानि :
किन्नु खलु लोको न वहति मूर्ना दग्धुमिन्धनम् ॥10॥ नदीरयस्तरुणामहीन् क्षालयन्नप्युन्मूलयति ॥151।।
उत्सेको हस्तगतमपि कार्य विनाशयति ॥152॥ अन्वयार्थ :- (खलु) निश्चय से (किन्तु) क्या कोई (लोक) मनुष्य (दग्धुम्) जलाने को (ईंधनम्) लकड़ियों को (मूर्जा) मस्तक से (न) नहीं (वहति) ले जाता है ? (नदीरयः) नदी का प्रवाह (तरुणाम्) वृक्षों के (अंहीन्) चरणों-जड़ों को (क्षालयन्) प्रक्षालन करता हुआ (अपि) भी (न) नहीं (उन्मूलयति) जड़ से उखाड़ता है ? (उत्सेक:) घमण्डी (हस्तगतम्) अधिकार प्राप्त (अपि) भी (कार्यम्) कार्य को (विनाशयति) नष्ट करता है ।। 150 1151 11152||
विशेषार्थ :- जिस प्रकार ईंधन को शिर पर ढोकर समय आने पर जला कर भस्म कर दिया जाता है, उसी प्रकार प्रथम प्रबल शत्र को प्रीति से मित्र बनाकर पुनः शक्ति और अवसर पाकर उससे युद्ध कर परास्त करना चाहिए।
दग्धंवहति काष्ठानि तथापि शिरसा नरः । एवं मान्योऽपिवैरी यः पश्चाद्वध्यः स्वशक्तितः ।।
शुक्र विद्वान अर्थ :- जलाने के उद्देश्य से मनुष्य प्रथम लकड़ियों को सिर पर ढोता है और पुनः जलाकर भस्म करता है । इसी प्रकार शक्तिशाली शत्रु को प्रथम सम्मान प्रदान कर पुनः स्वशक्ति बढ़ने पर उसे परास्त करे In51 ॥
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