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________________ मीति वाक्यामृतम् I जो मनुष्य कर्त्तव्य पालन में उत्साही व सावधान नहीं है वह शत्रुओं के वश हो जाता है । जैमिनि विद्वान । ने लिखा है : सुसूक्ष्मेष्वपि कृत्येषु शैथिल्यं कुरुतेऽत्र यः 1 स राजा रिपुवश्यः स्यात् प्रभूत विभवोऽपि सन् ॥1॥ अर्थात् जो राजा छोटे-छोटे कार्यों में भी शिथिल बना रहता है वह ऐश्वर्य सम्पन्न होकर भी शत्रुओं से परास्त हो जाता है । राजा को हर समय सावधान रहना चाहिए । नीतिवान नृप का कर्त्तव्य है कि अपने अनुकूल को शत्रु नहीं बनावे ॥ राजपुत्र का कथन है :वर्तमान यः शत्रुरूपं क्रियान्नृपः मित्रत्वं 1 स मूर्खो भ्रम्यते राजा अपवादं च गच्छति ॥1॥ जो राजा मित्र को शत्रु बनाता है, वह अपनी इस मूर्खतावश अनेक कष्टों का सामना करता है और भ्रमित हो अपवाद का भाजन भी होता है ।। मनुष्य को प्राणों से भी अधिक अपने गुप्त रहस्य की रक्षा करना चाहिए ।। भागुरि विद्वान का कथन है : आत्मच्छिद्रं प्ररक्षेत जीवादपि महीपतिः यतस्तेन प्रलब्धेन प्रविश्य ध्नन्ति शत्रवः 1 117 11 भूपति को अपने जीवन से भी अधिक अपने गुप्त कार्यों की सुरक्षा रखना योग्य है क्योंकि छिद्रान्वेशी शत्रुगण रहस्यभेद हो जाने पर उसे मार डालते हैं ।। समस्त कथन का सार है राजनीत में पेचीदे दाव पेचों में सावधान रहना ।। अपनी शक्ति ज्ञात कर शत्रु का सामना करना अन्यथा हानि : आत्मशक्तिमजानतो विग्रहः क्षयकाले कीटिकानां पक्षोत्थानमिव ||148 ॥ कालमलभमानोऽपकर्तरि साधु वर्तेत ॥149 ॥ अन्वयार्थ :- (आत्मशक्ति:) स्व सामर्थ्य (अजानतः) नहीं जानकर (विग्रहः ) संग्राम करना ( क्षयकाले ) मरण समय (कीटकानाम् ) पतंगों के ( पक्षोत्थानम् ) पंखों खोलने के ( इव) समान है ।। 148 ॥ (कालम् ) समय (अलभमानः) प्राप्त नहीं करने वाला (अपकर्तरि ) अपकार करने वालों में (साधु) मैत्रीरूप ( वर्तेत ) वर्तन करे ॥ विशेषार्थ :- जो राजा अपनी सामर्थ्य सैनिक शक्ति व कोष शक्ति को न समझ कर बलवान शत्रु के साथ संग्राम करता वह अपना नाश करता है । जिस प्रकार पतंगा दीप अथवा अन्य प्रकाश पर जाने की चेष्टा करता है तो पंखों को उठाता है और उसकी लौ में झुलस कर मृत्यु प्राप्त करता है । इसी प्रकार निर्बल राजा का बलवन्त शत्रु के साथ युद्ध करने का प्रयास कर मृत्यु का वरण करता है । गुरु विद्वान ने कहा है : 288 टूट जा राजा के स जि जा
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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