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नीति वाक्यामृतम्
इसी प्रकार जो राजा स्वतंत्र होता है । राजकीय कार्यों में सचिव मण्डल की सलाह नहीं लेता है, योग्य विचार विमर्श नहीं करता है । बिना विचारे असामयिक अनेक कार्यों को एक साथ प्रारम्भ कर देता है वह समस्त राज्य को नष्ट कर देता है । जैसा कि 'नारद' कहते हैं :
यः
स्वतंत्रोभवेद्राजासचिवान्न
च
पृच्छति 1 स्वयं कृत्यानि कुर्वाणः स राज्यं नाशयेद् ध्रुवम् ॥1॥
अर्थ
--
जो राजा स्वच्छन्द होता है, वह मन्त्रियों से कुछ भी राय नहीं लेता । स्वयं मनमाना राजकीय कार्यों को करता है वह निश्चय से अपने राज्य को नष्ट कर देता है 111 ।। 143 ॥
नोट : सूत्र 141 का अजाकृपाणीय न्याय :
किसी समय एक भूखा बटोही हिंसक वन में विचरण कर रहा था । उसने एक बकरियों का समूह देखा । उसने स्वार्थवश उस झुण्ड में एक हृष्ट-पुष्ट बकरे को देखा और उसे कोमल - हरे पत्ते खिलाने लगा । इससे बकरा उसके पीछे-पीछे चलने लगा । कुछ दूर जाने पर वह उसका वध करने को अस्त्र खोजने लगा । इसी समय उस बकरे ने अपने खुरों से ुछ जमीन खोदी और वहीं उसे खड्ग दिखाई दिया । उसी हथियार से वह उसे काट कर खा गया । इसे ही 'अजाकृपानीय न्याय' कहा जाता ||141 | सारांश यह है कि विश्वासघाती का संगम नहीं
करना चाहिए ।।
आलस्य से हानि और
मनुष्य कर्त्तव्य :
अलसः सर्व कर्मणामनधिकारी 11144 ॥ प्रमादवान् भवत्यवश्यं विद्विषां वशः 11145 ।। कमप्यात्नोऽनुकूलं प्रतिकूलं न कुर्यात् ||146 || प्राणादपि प्रत्यवायो रक्षितव्यः 11147 ||
अन्वयार्थ :- (अलसः) प्रमादी (सर्व) सम्पूर्ण (कर्मणाम्) राजकीय कार्यों के (अनधिकारी) अयोग्य [ भवति ] होता है 11144 ॥ (प्रमादवान्) प्रमादी मनुष्य ( अवश्यम्) निश्चय ही (विद्विषाम्) शत्रु के ( वशः) वश में (भवति) हो जाता है 11145 || (कमपि ) किसी को भी (आत्मनः) अपने (अनुकूलं) मित्र को ( प्रतिकूलं) शत्रु (न) नहीं (कुर्यात्) बनाये 11146 | ( प्राणात्) प्राणों से (अपि) भी (प्रत्यवायः) गुप्त रहस्य को ( रक्षितव्यः) रक्षित करना चाहिए ।।
विशेषार्थ :- प्रमादी मनुष्य समस्त राजकीय कार्यों के अयोग्य होता है । राजपुत्र :आलस्योपहतान् योऽन विदधात्यधिकारिणः । सूक्ष्मेष्वपि च कृत्येषु न सिद्धये तानितस्य हि ॥ 1 ॥
अर्थ :जो नृपति अल्प छोटे-छोटे कार्यों के लिए भी प्रमादीजनों को नियुक्त करता है वह किसी भी कार्य में सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता ||145
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