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नीति वाक्यामृतम्
जो मानव परस्पर की गुप्त बातों को प्रकाशित करते हैं ने अपना-अपना पराक्रम ही प्रकट करते हैं । अभिप्राय यह है कि एक दूसरे के समक्ष वे गुप्त बात को कहकर अपना-अपना गौरव दिखलाते हैं परन्तु दोनों ही क्षति उठाते हैं जैमिनि कहते हैं :
परस्य धर्म भेदं
च कुरुते कलहाश्रयः 1 तस्य सोऽपि करोत्येव तस्यान्मंत्रं न भेदयेत् ॥7 ॥
अर्थ :- जो दुर्बुद्धि परस्पर में कलह विसंबाद करके एक दूसरे की गुप्त बात को खोलते हैं । क्योंकि एक प्रकट करता है तो दूसरा सोचता है मैं भी खोलकर रहूँगा । इस प्रकार वे दोनों ही नष्ट होंगे । इसलिए मन्त्रभेद नहीं करना चाहिए । विश्वासघात सबसे बड़ा पाप है ।1140 ॥
शत्रुओं पर विश्वास करने से हानि :
तदजाकृपाणीयं यः परेषु विश्वासः ॥141 ॥
अन्वयार्थ :- (य) जो ( परेषु) दूसरों में (विश्वास) विश्वस्त होना (तद्) वह (अजा कृपाणीयम् ) अजाकृपाणीय न्याय [अस्ति ] है ।।
विशेषार्थ :
शत्रुओं पर विश्वास करना "अजाकृपाणीय न्याय" समान है ।। चाणक्य का कथन हैनविश्वसेदविश्वस्ते ऽपि न विश्वासाद्भयमुत्पन्नं मूलादपि
चञ्चल चित्त और स्वतन्त्र पुरुष की हानि :
विश्वसेत् निकृन्तति
अर्थ :- नीतिज्ञ पुरुषों को धोखेबाज शत्रुओं का विश्वास नहीं करना चाहिए अविश्वासों की क्या बात, विश्वस्त पुरुषों का भी विश्वास नहीं करना चाहिए । क्योंकि विश्वास करने से उत्पन्न हुआ भय मनुष्य को जड़मूल से नष्ट कर देता है । अभिप्राय यह है कि मनुष्य को आत्मविश्वासी बनना चाहिए | 1411
क्षणिकचित्तः किंचिदपि न साधयति 11142 ॥
स्वतंत्र सहसा कारित्वात् सर्वं विनाशयति ||143 ॥
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अन्वयार्थ ( क्षणिकचितः) चञ्चल मन (किंचिद्) कुछ (अपि) भी (न) नहीं ( साधयति ) सिद्ध करता है । (स्वतंत्र ) स्वच्छन्द (सहसा ) अचानक (कारित्वाता) करने वाला होने से (सर्वम्) सर्व ( विनाशयति ) नष्ट कर देता है ।1141 143 ॥
विशेषार्थ :- चञ्चलचित्त मनुष्य का कोई भी सूक्ष्म कार्य तनिक भी सिद्ध नहीं होता । इसलिए यश के इच्छुक पुरुषों को अपना चित्त स्थिर करना चाहिए । हारीत विद्वान का कथन है :
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चल चित्तस्यनोकिंचित् कार्यं किंचित् प्रसिद्धयति । सु सूक्ष्ममपितत्तस्मात् स्थिरं कार्यं यशोऽर्थिभिः ॥1॥