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________________ नीति वाक्यामृतम् दैवं निहत्यकुरु पौरुषमात्मशक्तया यत्ने कृते यदि न सिद्धयति कोऽत्र दोषः ॥1 ॥ अर्थ :- सत्पुरुषार्थी को लक्ष्मी का समागम होता है । भाग्य में होगा तो वैभव मिलेगा इस प्रकार का कथन कायरों का होता है जो प्रमादवश कर्त्तव्य च्युत हो जाते हैं । अतः भाग्याधीनता त्याग शक्ति के अनुसार पुरुषार्थ करो । यदि सतत उद्योगशील रहने पर भी कार्यसिद्धि न हो तो इसमें पुरुषार्थ का अपराध नहीं, अपितु भाग्य की विडम्बना है । अतः उद्यम नहीं छोड़ना चाहिए । दुष्ट अभिप्राय वालों के कार्य : आत्मसंशयेन कार्यारम्भो व्यालहृदयानाम् ।। पाठान्तर में व्याल के स्थान में बाल है । अन्वयार्थ :(आत्मसंशयेन) स्वघात की शंका से ( व्याल हृदयानाम्) भुजंग समान हृदय वाले दुर्जनों का (कार्यारम्भः) कार्य प्रारम्भ [ भवति ] होता है । विशेषार्थ :- सर्पादि दुष्ट जीवों के समान हृदय वाले मनुष्य इस प्रकार के निंद्य कार्य प्रारम्भ करते हैं जिनके कारण उन्हें अपने ही नाश की आशंका रहती है । शुक्र विद्वान लिखते हैं : ये व्याल हृदयाभूपास्तेषां कर्माणियानि आत्म सन्देह कारीणितानि स्युर्निखिलानि च -- अर्थ :- विषधर के सदृश क्रूर भूपतियों के समस्त कार्य, आत्मघात की शंका से व्याकीर्ण रहते हैं । अर्थात् वे कभी भी आश्वस्त नहीं रह पाते || महापुरुषों के गुण व मृदुता लाभ का विवेचन : दुर्भीरुत्वमासन्न शूरत्वं रिपौ प्रति महापुरुषाणाम् ॥ 127 ॥ अन्वयार्थ :- (दुर्) दुरवर्ती (आसन्नः) निकटवर्ती (रिपौ) शत्रु के ( प्रति) प्रति ( भीरुत्वम्) भयपना (तु) एवं (शूरत्वं) वीरता ( महापुरुषाणाम् ) महान पुरुषों की [ भवति ] होती है । विशेषार्थं नीति शास्त्र में कहा है तावत्परस्य दर्शनेतु - च I ॥1 ॥ भेतव्यं पुनर्जाते दर्शनं प्रहर्तव्यमशंकितै : यावन्नो भवेत् 281 1 112 1 अर्थ :- जब तक शत्रु सम्मुख न आवे तभी तक उसे भयभीत रहना चाहिए । समक्ष उपस्थित होने पर निर्भय होकर उस पर प्रहार करना चाहिए ॥ 11 ॥ जलवन्मार्दवोपेताः पृथुनपि भूभृतो भिनत्ति ।।128 ॥ अन्वयार्थ :(जलवत्) नीर के समान (मार्दवम्) कोमलता को (उपेतः) प्राप्त व्यक्ति (पृथुन:) कठोर (अपि) (भूभृतः) राजा को ( भिनत्ति) नष्ट कर देता है ।।128 ॥
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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