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नीति वाक्यामृतम्
यह कथानक अन्य अजैन पुराणों का समझना चाहिए। जैन में इस प्रकार की रिम्बना नहीं है 116 || मनुष्यों की धनाकांक्षा का दृष्टान्त :
अर्थेषूपभोग रहितास्तरवोऽपि साभिलाषाः किं पुनर्मनुष्याः ॥117 ॥
अन्वयार्थ :- ( अर्थेषु ) धन में ( उपभोगरहिताः) उपभोग नहीं करने वाले (तरव:) वृक्ष (अपि) भी (साभिलाषाः) फलने फूलने रूप धन की इच्छा करते हैं तब (पुनः) तो (मनुष्याः) मनुष्यों की (किम् ) क्या बात है ? कुछ नहीं । मनुष्यों को तो अपने शरीर, परिवारादि की रक्षार्थ धन-सम्पत्ति का उपभोग करना पडता है । अतः साभिलाषी होना उचित ही है । जैमिनि विद्वान ने लिखा है :
अर्थं तेऽपि च वाञ्छन्ति ये वृक्षाआत्मचेतसा उपभोगैः परित्यक्ताः किं पुनर्मनुष्याश्च ये
अन्वयार्थ होता ? होता ही है
अर्थ :- जो वृक्ष अपने उपभोग से रहित हैं वे भी धन की इच्छा से युक्त देखे जाते हैं। वे भी पुष्प फलादि की आकांक्षा करते हैं । फिर मनुष्य तो मनसहित हैं उनका तो कहना ही क्या है ? उन्हें तो धनाभिलाषी होना ही चाहिए 1717
लोभ का स्वरूप :
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कस्य न धनलाभाल्लोभः प्रवर्तते ।।118॥
(धनलाभात्) अर्थ प्राप्ति से (कस्य ) किसका ( लोभ:) लोभ (न) नहीं (प्रवर्तते ) प्रवृत्त नहीं । वर्ग विद्वान ने कहा है :
तावन्न जायते लोभो यावल्लाभो न विद्यते मुनिर्यदि वनस्थोऽपि दानं गृह्णाति नान्यथा
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अर्थ :- जब तक मनुष्य को धन लाभ नहीं होता, तब तक उन्हें लोभ भी जाग्रत नहीं होता । यदि ऐसा न होता तो वन खण्ड में एकाकी निस्पृही रहने वाले मुनियों को भी दान ग्रहण की वाञ्छा न होती । अतः अर्थालाभ लालच का मूल है 118
जितेन्द्रिय की प्रशंसा :
स खलु प्रत्यक्षं दैवं यस्य परस्वेष्विव परस्त्रीषु निःस्पृहं चेतः ॥119 ॥
अन्वयार्थ :- (यस्य) जिसका (चेतः) मन (परस्य) दूसरे के ( स्वेषु) धन में (इव) इसी प्रकार ( परस्त्रीषु) पराई स्त्री में (निःस्पृहः) अभिलाष रहित हैं (सः) वह ( खलु ) निश्चय से (प्रत्यक्षम् ) प्रत्यक्ष (दैवम्) देव [ अस्ति ]
है ।
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विशेषार्थ :- जो परधन और परस्त्री सेवन की अभिलाषा नहीं करता है वह पुरुष साक्षात् देवता है मनुष्य शरीर में । वर्ग विद्वान ने भी कहा है :