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________________ नीति वाक्यामृतम् न तथा जायते स्नेहः प्रभूतैः सुकृतै :बहुः । स्वल्पेनाप्यपकारेण यथा वैरं प्रजायते ॥1॥ अर्थ :- संसार दशा बडी विचित्र है । अपर थोड पीसा तो गैर-विरोभराधिन और स्थायी हो जाता है, उपकार कितना ही क्यों न हो स्नेह उतना नहीं होता । उपकार को मनुष्य विस्मृत कर देता है अपकार भुलाये नहीं भूल सकता है । यह है मानव की विरपीत वृत्ति ।। शत्रु क्या करते हैं ? सूचीमुखसर्पवन्नानपकृत्य विरमन्त्यपराद्धाः ॥114॥ अन्वयार्थ :- (सूचीमुखसर्पवत्) दृष्टिविष सर्प समान (अपराद्धाः) शत्रुजन (अनपकृत्य) अपकार करके हो (विरमन्ति) विरत होते हैं । विशेषार्थ :- जिस प्रकार दृष्टिविष भुजंग प्रतिशोध करके ही छोड़ता है उसी प्रकार शत्रुजन भी अपकार किये बिना विश्रान्ति नहीं लेते । भृगु कहते हैं : यो दृष्टिविषः सर्पो दृष्टस्तु विकृतिं भजेत् । तथापराधिनः सर्वे न स्युर्विकृति वर्जिताः ॥1।। अर्थ :- जिस प्रकार दृष्टि विष युक्त नाग देखने मात्र से विष उगलता है अपकार करता है । उसी प्रकार शत्रु लोग भी अपकार से रहित नहीं होते । अपकार करके ही रहते हैं 14॥ कामवेग से हानि : अतिवृद्धः कामस्तन्नास्ति यन्न करोति 115।। अन्वयार्थ :- (अतिवृद्धः) अत्यन्त बढी (कामः) कामवासना वाला (तत्) वह (नास्ति) कार्य नहीं (यत्) जिसे (न) नहीं (करोति) करता है । विशेषार्थ :- कामी पुरुष अपनी अत्यन्त वृद्धिंगत कामवासना से संसार में ऐसा कोई निंद्य कार्य नहीं जिसे वह नहीं करता हो । अर्थात् सभी प्रकार के निंद्य, व घृणित कार्यों को भी सम्पन्न कर डालता है । पौराणिक दृष्टान्त : श्रूयते हि किल कामपरवशः प्रजापति रात्मदुहितरि, हरिगोपबधूष, हरः शान्तनु कलत्रेषु, सुरपतिस्तमभायां, चन्द्रश्च वृहस्पतिपत्नयां मनश्चकारेति ॥116 ।। ___अन्वयार्थ :- (श्रूयते) सुना जाता है कि (हि) निश्चय से (किल) नियम से (कामपरवशः) कामाधीन (प्रजापतिः) ब्रह्मा ने (आत्मदुहितरि) अपनी कन्या से, (हरिः) कृष्ण (गोपबधूषुः) ग्वालाओं की कान्ताओं में, (हरः) शिवजी (शान्तनुकलयेषु) गंगानामक शान्तुनु की स्त्री में (सुरपतिः) इन्द्र (गौतमभार्यायाम्) गौतम की अहिल्या पनि में (च) और (चन्द्रः) चन्द्रमा (वृहस्पति पत्न्याम्) वृहस्पति पत्नि तारा में (मनः) मन को (चकार) लगाया मुग्ध हुए (इति) इस प्रकार किया 1
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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