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-- नीति वाक्यामृतम् ।
अन्वयार्थ :-(मंत्रिण:) मंत्री (अर्थग्रहणलालसायाम्) धन पाने के लोभ में पड़ा है तो (राज्ञः) राजा के (कार्ये) काम में (वा) अथवा (अर्थे) धन में (मतौ) बुद्धि में (न) नहीं आने [स्यात् ] देगा ।।
अपने ही धन संचन में बुद्धि लगाने वाले मन्त्री राजकार्य या कोष संचय में बुद्धि का प्रयोग नहीं कर सकते हैं।
विशेषार्थ :- मनुष्य की बुद्धि एक समय में एक ओर ही लगती है स्वार्थ या परार्थ में । जो अपनी ही स्वार्थ सिद्धि में लगा है वह राजकार्य व राजकोष का क्या ध्यान देगा ? नहीं । गुरु विद्वान ने भी लिखा है--
यत्र संजायते मंत्री वित्तग्रहण लालसाः ।
तस्य कार्यं न सिद्धयेत् भूमिपस्य कुतो धनम् ॥1॥ अर्थ :- जिस भूमिपति का मंत्री स्वयं धन सञ्चय की लालसा में लगा है उस राजा का न तो कोई युद्धादि कार्य सिद्ध होता है और न कोष वृद्धि ही संभव हो सकती है । इसी को दृष्टान्त द्वारा पुष्ट करते हैं :
वरणार्थं प्रेषित इव यदि कन्यां परिणयति तदा वरयितुस्तप एव शरणम् ॥107 ।।
अन्वयार्थ :- (यदि) अगर (वरणार्थम्) विवाह करने को (कन्याम्) कन्या को देखने के लिए (प्रेषितः) भेजा व्यक्ति (परिणयति) स्वयं उसका वरण करले (तदा) तव (वरयितु) वरण करने वाले का (तपः) तपश्चरण (एव) ही (शरणम्) शरण है (इव) इसी प्रकार लोभी मंत्री वाले राजा की दशा होती है ।।
विशेषार्थ :- कोई मनुष्य अपने विवाह की इच्छा से किसी अन्य पुरुष को कन्या देखने को अपने सम्बन्धी (मामा, चाचा) को भेजता है और वह वहाँ पहुँच कर स्वयं ही उस कन्या के साथ विवाह कर ले तो अब उस विवाह की इच्छा रखने वाले को क्या करना ? उसे तप की शरण लेना ही उचित है । क्योंकि पत्नी के अभाव में तप करना ही श्रेष्ठ है। उसी प्रकार प्रकरण में जिस राजा का मंत्री धन लम्पट है, उसे भी अपना राज्य त्याग कर तपस्वी बन जाना ही उत्तम है । क्योंकि धन के अभाव में न राज्य संचालन हो सकता है और न जीवन ही। धनादि की प्राप्ति मंत्री की सहायता से प्राप्त होती है, वह स्वयं का उल्लू सीधा करने में लगा है फिर राज्य कैसे स्थिर हो ? शुक्र विद्वान ने लिखा है :
निरुणद्धिसतांमार्ग स्वयमाश्रित्य शंकितः ।
श्वाकारः सचिवो यस्य तस्य राज्यस्थितिः कुतः ॥1॥ अर्थ :- जिस राजा का मंत्री श्वान-कत्ते के समान शकित व सज्जनों का मार्ग (टेक्स आदि द्वारा अप्राप्त धन की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा आदि) रोक देता है उसकी राज्य स्थिति किस प्रकार रह सकती है ? नहीं रह सकती । उक्त बात को अन्य दृष्टान्त द्वारा समर्थित करते हैं :
स्थाल्येवभक्तं चेत् स्वयमश्नाति कुतो भोक्तुर्भुक्तिः ॥108॥ ____ अन्वयार्थ :- (स्थाली) थाल (एव) ही (भक्तम्) भोजन को (स्वयम्) स्वयम् (एव) ही (अनाति) खा
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