________________
नीति वाक्यामृतम्
लेती है (चेत्) तो (भोक्तुः) भोजन करने वालो की (कुतो) कहाँ से (भुक्तिः) भोजन सिद्धि हो ?
विशेषार्थ :- जिस पात्र में भोजन पकाया जा रहा है वह पात्र ही उसे भक्षण कर ले तो पकाने वाले को भोजन कहाँ मिल सकता है ? नहीं मिल सकता । इसी प्रकार मंत्री राजद्रव्य को स्वयं हडप जाय तो फिर राज्य किस प्रकार चल सकता है ? नहीं चल सकता है । विदुर विद्वान ने भी कहा है :
. दुग्धमाकम्य चान्येन पीतं वत्सेन गां यदा ।
तदा तक्रं कुतस्तस्याः स्वामिनस्तृप्तये भवेत् ॥1॥
अर्थ :- जिस गाय कासमस्त दुग्ध का उसके बछड़े ने पी लिया, अब उसके स्वामी की तृप्ति को दुग्ध, छाछ, घी आदि कहाँ से कैसे प्राप्त होगा ? नहीं हो सकता । इसी प्रकार जब राजमन्त्री राजकीय समस्त धन को हड़प करले तब राज्य व्यवस्था (शिष्टपालन, दुर्जननिग्रह) आदि कार्य कैसे सिद्ध हो सकते हैं । नहीं हो सकते। इसलिए धनलम्पटी को मन्त्रीपद पर नियुक्त नहीं करना चाहिए । पुरुषों की प्रकृति :
तावत् सर्वोऽपि शुचिनिः स्पृहो यावन पर परस्त्री दर्शनमर्थागमो वा ||109॥
अन्वयार्थ :- (सर्वाः) समस्त पुरुष (अपि) भी (तावत्) तब तक ही (शुचिः) पवित्र (निःस्पृहः) निर्लोभी हैं (यावत्) जब तक कि (पर) दूसरे की (वरस्त्री) श्रेष्ठ कान्ता को (दर्शनम्) देखा (न) नहीं (वा) अथवा (अर्थागमः) धन प्राप्ति को [न] नहीं [दर्शनम्] देखा हो ।
तब तक समस्त मनुष्य पवित्र और निलोभी बने रहते हैं जबतक कि उन्हें श्रेष्ठतम सुन्दर नारी रत्न व घर धन प्राप्ति दृष्टिगत नहीं होती । विद्वान वर्ग का इस विषय में निम्न कथन है :..
तावच्छुचिरलोभः स्यात् यावन्नेक्षेत् परस्त्रियम् ।
वित्तं च दर्शनात्ताभ्यां द्वितीयं तत् प्रणश्यति ॥1॥ अर्थ :- जब तक मानव पर स्त्री व परधन को कुदृष्टि से नहीं देखता है तब तक ही वह पवित्र व निर्लोभी रह सकता है । परन्तु इनके निरीक्षण करने पर उसके दोनों-पवित्रा, निलोभता गुण नष्ट हो जाते हैं ।। निर्दोष को दूषण लगाने से हानि :
अदष्टस्य हि दूषणं सुप्तव्याल प्रबोधनमिव 110॥ अन्वयार्थ :- (अदष्टस्य) निर्दोष के (दूषणम्) दूषण लगाना (हि) निश्चय से (सुप्तव्याल प्रबोधनम्) सोये हुए सर्प को जगाने (मिव) के समान है ।
किसी निर्दोषी पुरुष को दोषारोपण करना सुसुप्त अहि को जाग्रत करने के सदृश समझना चाहिए ।
विशेषार्थ :- जिस प्रकार सोते हुए सर्प या व्याघ्र को जगाने वाले की मृत्यु होती है उसी प्रकार निर्दोष को दूषण लगाने से मनुष्य की क्षति होती है । क्योंकि इस प्रकार निर्दोषी व्यक्ति वैर-विरोध करके उसकी यथाशक्ति
275