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नीति वाक्यामृतम्
अभिमान करने वाले पदार्थ :
मंत्राधिकारः स्वामिप्रसादः शस्त्रोपजीवन चेत्येकैकमपि
पुरुषमुसेत्कयति किं पुनर्न समुदायः 110411 अन्वयार्थ :- (मन्त्राधिकार:) मन्त्रित्व का अधिकार (स्वामिप्रसादः) (च) और राजा का अनुग्रह (शस्त्रोपजीवनम्) क्षत्रित्व (इति) ये (एक एकम्) एक-एक (अपि) भी (पुरुषम्) पुरुष को (उत्सेकयति) उन्मत्त करता है (पुनः) फिर (समुदायः) तीनों मिलकर (किम्) क्या (न) करेंगे नहीं ?
विशेषार्थ :- अहंकार उत्पत्ति के कारण तीन हैं-1. मन्त्रीपद का स्वामित्य प्राप्त होना 2. राजा की प्रसन्नता और 3. क्षत्रित्व । ये एक-एक भी अहंकार को उत्पन्न करने में समर्थ हैं तो फिर तीनों एक साथ एकत्रित हो जायें तो कहना ही क्या ? वह तो उन्मत्त बनायेगा ही In04 || शुक्र विद्वान ने भी कहा है :
नप प्रसादो मंत्रित्वं शस्त्रजीव्यं स्मयं कि यात् । एक कोऽपि नरस्यात्र किं पुनर्यत्र ते त्रयः ॥1॥
अर्थ :- नुपति की प्रसन्नता, मन्त्रीपद का पाना, और क्षत्रियपन इनमें से एक भी प्राप्त हो जाय तो मनुष्य अहंकार के नशे में डूब जाता है । यदि ये तीनों बातें उसे एक साथ उपलब्ध हो जावें तो फिर कहना ही क्या है ? अर्थात् अवश्य ही मद चढ़ता है । इस नीति में राजा को सावधान रहकर कार्य करना चाहिए 1104 ॥ अधिकारी का स्वरूप :
__ नालम्पटोऽधिकारी 105 पाठान्तर "न लम्पटो अधिकारी भवति ॥
अन्वयार्थ :- (अलम्पट:) इच्छा रहित (अधिकारी) मंत्री आदि पदाधारी (न) नहीं पाठान्तर - (लम्पटो) धन, स्त्री आदि का लोभी (अधिकारी) मंत्रपदाधिकारी (न) नहीं (भवति) होता है ।।
विशेषार्थ :- जो पुरुष धनादि का लोलुपी होता है वह मन्त्री आदि पद पर नियुक्त करने योग्य नहीं होता। द्वितीय पक्ष-धनादि की इच्छा बिना कोई भी मंत्री आदि पद का अधिकारी नहीं होता है । वल्लभ देव विद्वान ने भी कहा है -
निःस्पृहो नाधिकारी स्यान्नाकामी मण्डनप्रियः ।
नाविदग्धः प्रियं बूयात् स्फुटवक्ता न वञ्चकः ॥1॥ अर्थ :- जिस व्यक्ति को धनादि की चाह नहीं है वह मंत्री आदि पद का अधिकारी नहीं होता । प्रेम से वेष-भूषादि शृंगार करने वाला, काम वासना से रहित नहीं होता । अज्ञानी-मूर्ख पुरुष प्रियवादी नहीं होता । एवं स्पष्ट वक्ता धोखेबाज नहीं होता ।। इस प्रकार विचार कर पदाधिकार देना चाहिए |nos ॥ धन लम्पटी-राजमन्त्री से हानि :
मंत्रिणोऽर्थग्रहणलालसायां मतौ न राज्ञः कार्यमर्थो वा 106 ।।
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