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नीति वाक्यामृतम् ।
अर्थ :- राजा को मन्त्रणा करने के विषय में क्षत्रियों को नियुक्त नहीं करना चाहिए । क्योंकि वे केवल संग्राम सम्बन्धी विषय में सलाह दे सकते हैं अन्य विषयों में नहीं । इसी विषय में कहते हैं :
क्षत्रियस्य परिहरतोऽप्यायात्युपरि भण्डनम् 102 ।। अन्वयार्थ :- (क्षत्रियस्य) क्षत्रिय के (परिहततो:) रोकने पर (अपि) भी (भण्डनम्) झगड़ा (उपरि) करने को ही (आयाति) आता है ।
क्षत्रियों को रोका भी जाय तो वे कलह करे बिना नहीं रह सकते । अतएव उनको मन्त्री पद पर नियुक्त नहीं करना चाहिए ।
विशेषार्थ :- स्वाभाविक प्रवृत्ति का परिवर्तन करना सहज नहीं होता । सर्प को शक्कर-दूध पिलाने से विष वमन करना नहीं छोड़ता । इसी प्रकार क्षत्रियपुत्र मंत्रीपदासीन होने पर भी वीरत्वभाव का त्याग नहीं कर सकता। वर्ग विद्वान कहते हैं :
नियमाायपि प्रायः क्षार तेजो विवर्धते ।
युद्धार्थं तेन संत्याज्यः क्षत्रियो मंत्र कर्मणि ॥1॥ अर्थ :- क्षत्रिय का क्षात्रतेज ब्रेक लगाने पर भी प्रायः अधिक बढ़ता है । इसलिए वह संग्राम कार्य के योग्य ही है । मंत्रणा के क्षेत्र में उसका प्रवेश युक्त नहीं । अतएव राजाओं को क्षत्रियों को मंत्रणा कार्य के लिए नहीं रखना ही श्रेयस्कर है । क्योंकि उनका विषय संग्राम करना है न कि मंत्रणा In02|| छत्रियों की प्रकृत्ति :
शस्त्रोपजीविनां कलहमन्तरेण भक्तमपि भुक्तं न जीर्यति mo3॥ अन्वयार्थ :- (शस्त्रोपजीविनाम्) शस्त्र संचालन जीविका वालों का (भुक्तम्) खाया हुआ (भक्तम्) भोजन (अपि) भी (कलहम्) झगड़े (मन्तरेण) बिन (न) नहीं (जीर्यति) पचता है ।
जिनका शस्त्र संचालन ही जीविका का साधन है, उन (क्षत्रियों) का उदरस्थ भोजन भी बिना लड़ाई-झगड़ा किये पचता नहीं है । विशेषार्थ :- जो व्यक्ति भोजन को भी बिना पहलवानी किये नहीं पचा सकता वह राजकीय सलाह परामर्श
गुप्त बातों को किस प्रकार पचा सकता है ? गोपनीय रख सकता है ? नहीं रख सकता । भागुरि कहते हैं :
शस्त्रोपजीविनामनमुदरस्थं न जीर्यति । यावत् के नापि नो युद्धं साधुनापि समंभवेत् ॥1॥
अर्थ :- शस्त्र संचालन से जीविका चलाने वाले क्षत्रियों को किसी के साथ युद्ध किये बिना पेट का अन्न भी सम्यक प्रकार नहीं पचता है ।। ||103 ||
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