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नीति वाक्यामृतम्
विशेषार्थ :- किसी व्यक्ति ने अपने कार्य विशेष के सम्पादन के लिए मंत्रसाधना की और हो भी गई । उसका अधिष्ठाता देव समक्ष प्रकट हुआ - पिशाच, उस पिशाच ने उसी मंत्रवादी की जीवनलीला समाप्त कर दी । उसी प्रकार राजा भी पूर्वापर विचार न करने वाले पुरुषों से केबीनेट मण्डल का कार्य नहीं हो सकता । अर्थात् वे राजा की सामर्थ्य को ही समाप्त कर देते हैं । अतः मूर्ख मंत्री नियुक्त करना उचित नहीं । शुक्र विद्वान भी कहता
मूर्खमंत्रिषु यो भारं राजोत्थं संप्रयच्छति ।
आत्मनाशाय क त्यां स उत्थापयति भूमिपः ॥1॥ अर्थ :- जो नृपति अपना राज्यभार मूर्ख-अनपढ़ मंत्रियों पर छोड़ देता है, वह अपने ही नाश के लिए मंत्र विशेष सिद्ध करता है यह समझना चाहिए 197 ।। कर्तव्य विमुख का शास्त्रज्ञान व्यर्थ है :
अकार्य वेदिनः किं बहुना शास्त्रेण ॥98॥ ___ अन्वयार्थ :- (अकार्यवेदिनः) अकर्त्तव्य को ही कर्तव्य जानने वाले को (बहुना) प्रभूत (शास्त्रेण) शास्त्र ज्ञान से (किम) क्या प्रयोजन ?
बहुत से शास्त्रों का अध्ययन करने पर भी कर्तव्यनिष्ठता नहीं आयी तो उस पुस्तकीय ज्ञान से क्या प्रयोजन? कुछ भी कार्य सिद्धि नहीं होती ।
विशेषार्थ :- जिससे हित की प्राप्ति और अहित का परिहार हो वह ज्ञान है । यदि शास्त्र विशेष पढ़कर, सुनकर, अध्ययन कर अयोग्य कार्यों से अपना रक्षण न करे और योग्य-करणीय कार्यों में अपने को न लगाये तो उस कोरे शाब्दिक ज्ञान से क्या प्रयोजन ? शास्त्रज्ञान के साथ चारित्र भी होना चाहिए । विद्वान रैभ्य ने भी लिखा
न कार्य जो निजं वेत्ति शास्त्राभ्यासेन तस्य किम् । बहु नाऽपि वृद्धार्थेन यथा भस्महुतेन च ॥1॥
अर्थ :- जो व्यक्ति अपने कर्तव्य को नहीं जानता उसके शास्त्राभ्यास का क्या प्रयोजन? कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । उसका प्रभूत बढ़ा हुआ ज्ञान भस्म (राख) में होम करने के समान व्यर्थ श्रम है ।। गुणहीन मनुष्य की कटु आलोचना :
गुणहीनं धनुः पिंजनादपि कष्टम् ॥99 ।। अन्वयार्थ :- (गुण) डोरी (हीनम्) रहित (धनुः) धनुष, (पिंजनात्) पीजने से (अपि) भी (कष्टम्) कष्टकर
डोरी रहित धनुष पर प्रत्यञ्चा लगाकर प्रहार करना व्यर्थ ही कष्टप्रद होता है । इसी प्रकार जो पुरुष नैतिक
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