SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीति वाक्यामृतम् । ही विद्वान और उच्चकुलीन क्यों न हो, परन्तु यदि उससे उसका स्वामी सन्तुष्ट नहीं तो उसे सम्पदा धन कदाऽपि । प्राप्त नहीं हो सकता। विशेषार्थ :- जो जिसके आश्रित होता है उसे अपने स्वामी को प्रसन्न रखना अनिवार्य है । मालिक के अनुकूल प्रवृत्ति रखने से वह प्रसन्न हो जाता है और सेवक को वरदान स्वरूप बन जाता है । स्वामी की प्रसन्नता धन प्रदात्री होती है ।। शुक्र विद्वान ने भी कहा है : कुलीना पण्डिता दुःस्था दृश्यन्ते वह वो जनाः ॥ मूर्खाः कुलविहीनाश्च धनाढ या राजवल्लभाः ॥1॥ अर्थ :- संसार में बहुत से कुलीन और विद्वान लोग दरिद्री दिखाई पड़ते हैं । परन्तु जिन पर राजा की कृपा होती है वे मूर्ख व कुलहीन होने पर भी धनपति देखे जाते हैं ।। वज्रमूर्ख के स्वभाव का दृष्टान्त : हरकण्ठ लग्नोऽपि कालकूटः काल एव ।।96 ।। अन्वयार्थ :- (हरकण्ठलग्न:) शिवजी के कण्ठ में लगा (अपि) भी (कालकूट:) विष (काल) विष (एव) ही [अस्ति] है । महादेव जी के श्वेत कण्ठ में लगा विष तो विष ही है । विशेषार्थ :- महादेव जी का कण्ठ श्वेत है तो क्या उसमें लगा हुआ विष तो विष ही है । वह अपने स्वभाव कृष्णपने को त्याग नहीं सकता । सारांश यह है कि जिस प्रकार अत्यन्त शुभ्र महादेव जी के कण्ठ को प्राप्त कर भी हालाहल विष अपने कृष्ण स्वभाव प्राणघातक स्वभाव को नहीं छोड़ता उसी प्रकार मूर्ख मनुष्य भी राजाश्रय पाकर अर्थात् राजमंत्री, राज पुरोहित आदि उच्च अधिकारों को प्राप्त कर भी अपने मूर्खतापूर्ण स्वभाव को नहीं छोड़ सकता । श्री सुन्दरसेन भी कहते हैं : स्वभावो नोपदेशेन शकते कर्तुमन्यथा । सुततान्यपि तोयानि पुनर्गच्छन्ति शीतताम् ।। अर्थ :- वस्तु स्वभाव उपदेश द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। क्योंकि कितना ही गरम किया हुआ जल क्यों न हो अपने शीतल स्वभाव को प्राप्त हो जाता है । कहा भी है : "स्वभावो नान्यथा कर्तुं पार्यते" स्वभाव को अन्य रूप परिणमाया नहीं जा सकता 1196 ॥ मूर्ख मंत्रियों को राजभार देने से हानि : स्व वधाय कृत्योत्यापनमिव मूर्खेषु राज्यभारारोपणम् ॥97॥ अन्वयार्थ :- (मूर्खेषु) मूखों (में) पर (राज्य) राज्य का (भारारोपणम्) भार डालना (स्ववधाय) अपने । नाश के लिए (इव) समान कृत्थोत्थापनम् मन्त्र सिद्ध करना (इव) समान है । (कृत्योत्थापम्) अपने कार्य को सिद्धि के लिए मंत्र साधना की और वह स्वयं का ही घात करने वाली हो गई । 269
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy