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नीति वाक्यामृतम्
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अन्वयार्थ :- (वहवः) बहुत सचिव (मंत्रिणः) सचिव (परस्परम्) आपस में (स्वमती:) अपनी बुद्धि को (उत्कर्षयन्ति) प्रभुत्व दर्शाते हैं ।
अनेक मन्त्री रहेंगे तो राजा के समक्ष अपनी अपनी प्रभता प्रदर्शित करते हैं, अपने-अपने मत को पुष्टि करते
विशेषार्थ :- ईर्ष्यालु बहुत से मंत्री परस्पर विसम्बाद उत्पन्न कर राजा को मतिभ्रम कर देते हैं । इससे राजकार्य की हानि होती है । विद्वान रैभ्य ने भी लिखा है :
बहूंश्च मंत्रिणो राजा सस्पर्द्धनि करोति यः
घ्नन्ति ने नृपकार्यं यत् स्वमंत्रस्य कृता वराः ।।1।। अर्थ :- जो नृप बहुत से ईर्ष्यालु मात्रयों को नियुक्त करता है वह उनके अपने अपने उत्कृष्टपने के प्रदर्शन में फंस कर अपने राज कार्य का विनाश करता है ।
भावार्थ ईर्ष्यालु बहुत से मंत्री परस्पर लड़ते-झगडते अपने अपने गुणों का प्रदर्शन करने में ही रहते हैं । राज्य कार्य सम्पादन की ओर उनका लक्ष्य नहीं जाता । फलत: राज्य नष्ट हो जाता है ।173|| स्वेच्छाचारी मंत्रियों से हानि :
स्वच्छन्दाश्च न विजृम्भन्ते ।।74|| अन्वयार्थ :- (च) और (स्वच्छन्दाचारी) मनमानी करने वाले (न) नहीं (विजृम्भन्ते) विस्तार करते
स्वेच्छाचारी मन्त्री आपस की उचित सलाह को विस्तार नहीं देते अर्थात् स्वीकृत कर कार्य सिद्धि नहीं करते । 74 || अत्रि ने कहा है :
स्वच्छन्दा मंत्रिणो नूनं न कुर्वन्ति यथोचितम् ।
मंत्रं मंत्रयमाणाश्च भूपस्याहिताः स्मृताः ।।1। अर्थ :- स्वेच्छाचारी सचिव राजा के हितैषी नहीं होते और मंत्रणा करते समय उचित यथायोग्य परामर्श भी नहीं देते । स्वयं उचित बात को भी नहीं मानते ।।1।।
उच्छृखलवृत्ति वाले सचिव सतत् "अपनी ढपली अपना राग" कहावत को चरितार्थ करने की चेष्टा में रहते हैं। राजा व राज्य की ओर उनका लक्ष्य सही नहीं रहता है । राजा व मनुष्य-कर्त्तव्य :
यद् बहुगुणमनपाय बहुलं भवति तत्कार्यमनुष्ठेयम् ।।75 ।। अन्वयार्थ :- राजा व मनुष्य को (यत्) जो (बहुगुणम्) अत्यन्त गुणकारी (अनपाय बहुलम्) अपायादि । से रहित कल्याण बहुल (भवति) होता हैं (तत्) वही (कार्यम्) कार्य (अनुष्ठेयम्) करना चाहिए।
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