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नीति वाक्यामृतम्
अन्वयार्थ :- (यथा) जिस प्रकार (ग्रावा) विशाल चट्टान (दारुणा) टेड़ी नुकीली लकड़ी के द्वारा (उत्थाप्यते) उठायी जाती है (खलु) निश्चय से (तथा) उस प्रकार (हस्तेन ) हाथ से (न) नहीं ।
विशालगढ़ी हुयी चट्टान महान् परिश्रम करने पर भी हाथों से नहीं उखाड़ी जा सकती । वही टेड़ी लकड़ी (कुदाली) द्वारा आसानी से उखाड़ कर निकाली जा सकती । उसी प्रकार कठिन कार्य भी सही मन्त्रणा द्वारा साध्य कर लिया जाता है ।
विशेषार्थ :- युक्ति से कठिन कार्य भी सरल हो जाता है । विशाल शिला जमीन में गढ़ी रहने पर भी तिरछी लकड़ी के सहारे सरलता से निकाली जा सकती है । उस प्रकार हाथों के द्वारा कठिन परिश्रम करने पर भी नहीं उठायी जा सकती। इसी प्रकार मन्त्र शक्ति से दुरुह कार्य भी स्वल्प परिश्रम से ही आसानी से सिद्ध किया जा सकता है । हारीत विद्वान ने भी कहा है :
यत् कार्य साधयेद् राजा क्लेशैः संग्रामपूर्वकैः ।
मंत्रेण सुखसाध्यं तत्तस्मान्मंत्रं प्रकारयेत् ॥ अर्थ :- भूपाल जिस काम को (अप्राप्त राज्यादि को) युद्ध करके अनेक कष्ट उठाकर भी सिद्ध करता है उस कार्य को मन्त्र की सहायता के बिना श्रम से अनायास ही साध लेता है । इसलिए विवेकियों को सतत् मन्त्रणापूर्वक कार्य सम्पादन करना चाहिए । मन्त्रणा करना अत्यावश्यक है |1511 राजा का शत्रु कैसा मन्त्री होता है :
स मंत्री शत्रुर्यो नृपेच्छयाऽकार्यमपि कार्यरूपतयाऽनुशास्ति ।।52॥ अन्वयार्थ :- (सः) वह (मन्त्री) सचिव (शत्रु:) रिपु है (यः) जो (नृपस्य) राजा की (इच्छया) इच्छानुसार चलता हुआ (अकार्यम्) नहीं करने योग्य (अपि) भी (कार्यरुपतया) करणीय के समान दर्शा (अनुशास्ति) कार्य सम्पादन का प्रयत्न कराता है ।
जो मन्त्री अपने स्वामी को विपरीत सलाह देकर अनुशासित करता है, वह मंत्री राजा का शत्रु है ।
विशेषार्थ :- यदि राजा अनुचित कार्य करना चाहता है और मन्त्री से उस विषय में परामर्श करता है । मन्त्री यह सोचकर कि राजा विपरीत कार्य का समर्थन करता है और राजा को प्रसन्न रखने की चेष्टा में रहता है वह मंत्री राजा का परम शत्रु है । भागुरि ने कहा है :
अकृत्यं कृत्यरूपं च सत्यं चाक़त्य संज्ञितां ।
निवेदयति भूपस्य स वैरी मंत्रिरुप धृक् ॥1॥ अर्थ :- जो मंत्री राजा को अकर्तव्य का कर्त्तव्य और कर्तव्य का अकर्त्तव्य बतलाता है वह मंत्री रुप में शत्रु है 174
जो निस्वार्थ वृत्ति से स्वामी की सेवा करता है वही मित्र होता है और अपने स्वार्थ के लालच से जो कर्तव्य और अकर्तव्य को विपरीत कर मात्र खुशामद करता है वह मित्र नहीं शत्रु है ।।
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