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नीति वाक्यामृतम्
अन्वयार्थ :- (मन्त्रकाले) गुप्त मन्त्रणा के समय (विगृह्य) कलह करके (विवादः) वाद-विवाद (च) और (श्वैरालाप:) स्वच्छन्द हंसी-मजाकादि (न कर्त्तव्यः) नहीं करना चाहिए ।
एकान्त में किसी रहस्यपूर्ण विषय का निर्णय लेते समय मंत्रियों को व्यर्थ विसम्बाद करके वितण्डा उत्पन्न नहीं करना चाहिए और हंसी मजाक भी नहीं करना चाहिए ।
विशेषार्थ :- कलह करने से वैर विरोध और स्वच्छन्द हंसी-मजाकादि-अनुभव शून्य वार्तालाप करने से अनादर होता है । अतः मन्त्रियों को मन्त्रवेला में असंगत प्रसंग छेड़ कर व्यर्थ की चर्चा नहीं करनी चाहिए । इस विषय में गुरु विद्वान ने भी लिखा है :
विरोधवाक्य हास्यानि मंत्रकाल उपस्थिते ।
ये कुर्यु मन्त्रिणस्तेषां मंत्रकार्यं न सिद्धियति ।।1॥ अर्थ :- जो मन्त्री मन्त्रणा करते समय वैर-विरोधोत्पादक वाद-विवाद या हंसी मजाक करने लगते हैं उनके कार्य की सिद्धि नहीं होती । अत: कार्यानुसार काल का परिज्ञान दृष्टि में रखकर वार्तालाप करना चाहिए । असंगत चर्चा नहीं करें । मन्त्र का प्रधान प्रयोजन-फल :
अविरुद्धरस्वैरैर्विहितो मन्त्रो लघुनोपायेन महतः कार्यस्य सिद्धिर्मत्रफलम् ।।50॥ पाठान्तर-लघुनोपायेन महन: कार्थस्य सिद्धि मन्त्र फलम् ।। परन्तु उर्ण भेद विशेष नहीं है ।।50॥
अन्वयार्थ :- (अविरुद्धैः) वैर-विरोध रहित (अस्वैरैः) स्वच्छन्दता रहित (विहितः) मन्त्रणा की गई (लघुना) अल्प (उपायेन) प्रयत्न से (महतः) महान (कार्यस्य) कार्य की (सिद्धिः) सफल [भवति] होती है । [इदमेव] यही (मन्त्रफलम्) मन्त्रणा का फल है ।
शान्ति और गम्भीरता से गुस विषय की एकान्त विवेचना अल्प प्रयास से सिद्धि प्रदान करती है ।
विशेषार्थ :- लघु उपाय से लघु कार्य और महत् उपाय से महान् कार्य की सिद्धि होना यह मन्त्रशक्ति का फल नहीं है । कारण कि इस प्रकार के कार्य तो बिना मन्त्रणा के भी हो सकते हैं । परन्तु अल्प समय और लघु उपायों से महान् कार्य की सिद्धि होना मन्त्रणा का यथार्थ कार्य है । माहात्म्य है । नारद विद्वान ने भी कहा है -
सावधानाश्च ये मंत्रं चक रेकान्तमाश्रिताः ।
साधयन्ति नरेन्द्रस्य कृत्यं क्लेशविवर्जितम् ।।1।। अर्थ :- सतर्क-बुद्धिमन्त मन्त्री एकान्त में बैठकर षाड्गुण्य-संधि, विग्रह आदि सम्बन्धी मन्त्रणा करे । इस प्रकार मन्त्रणा करने वाला मन्त्री राजा के महान कार्य को भी सरलता से बिना कष्ट के ही सिद्ध कर देता है 1500 उक्त वाक्य का दृष्टान्त द्वारा समर्थन :
न खलु तथा हस्तेनोत्थाप्यते ग्रावा यथा दारुणा ।।51॥
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