________________
मन्त्र - सलाह के अयोग्य स्थान :
नीति वाक्यामृतम्
आकाशे प्रतिशब्दवति चाश्रये मंत्रं न कुर्यात् ॥26॥
अन्वयार्थ :- ( आकाशे) खुले मैदान में ( प्रतिशब्दवति) गुफा आदि प्रतिध्वनि होने वाले स्थानों में (च) और ऐसे स्थानों के ( आश्रये) आश्रय में ( मन्त्रम्) मन्त्रणा ( न कुर्यात्) नहीं करे ।
राजा को चारों ओर से खुले मैदान में, गुफा कन्दराओं- जहाँ आवाज प्रतिध्वनित हो ऐसे स्थानों में मन्त्रियों के साथ मन्त्रणा नहीं करना चाहिए ।
विशेषार्थ :- गुप्त कार्यों की मन्त्रणा भी गुप्त स्थान में ही होना चाहिए। यह स्थान चारों ओर से ढका रहना चाहिए। प्रतिध्वनि से रहित होना चाहिए | क्योंकि मन्त्रणा के शब्दों की ध्वनि बाहर नहीं आना चाहिए । इससे भेद खुलने की संभावना है । किसी नीतिकार ने कहा है :
निराश्रयप्रदेशे तु मन्त्रः कार्यों न भू भुजा । प्रतिशब्दो न यत्र स्यान्मन्त्रसिद्धिं प्रवाञ्छता ।।1 ॥
अर्थ : :- मन्त्रसिद्धि चाहने वाले राजा को खुले हुए स्थान में मंत्रणा नहीं करना चाहिए तथा जिस स्थान पर शब्द टकराकर प्रतिध्वनित नहीं हो उस स्थान पर मन्त्रणा करना चाहिए । भेद खुलने पर मंत्रणा का कोई फल नहीं है 1126 ॥
मन्त्र जानने के साधन :
मुखविकारकराभिनयाभ्यां प्रतिध्वानेन वा मनः स्थमप्यर्थमभ्यूह्यन्ति विचक्षणाः 1127 ॥
अन्वयार्थ :- (हि) निश्चय से ( विचक्षणाः) चतुर पुरुष ( मुख विकारेण) मुखाकृति (कराभिनयाभ्यां ) हाथों के इशारों से (वा) अथवा (प्रतिध्वानेन) शब्दसंकेत से ( अनस्थम्) मन में स्थित ( अर्थम्) भाव को (अपि) भी (अभ्यूह्यन्ति) समझ जाते हैं ।
रहस्य विद्या में निपुण व्यक्ति वदन, हस्त, नयन, शब्दादि ध्वनि के माध्यम से मन के अभिप्राय को ज्ञात कर लेते हैं ।
विशेषार्थ :- चतुर दूतादि लोग स्वामी राजा के हृदयगत भावों को मुख की आकृति, और हस्तादि अंगों के सञ्चालनादि द्वारा अवगत कर लेते हैं । अतएव राजा को गुप्त मन्त्रणा इन लोगों के सामने नहीं करना चाहिए | अन्यथा मन्त्र प्रकाशित हो जाता है 1127 || क्यों कि चर के बारे में आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं कि
वर्णितापस वेशेषु स्वान्तर्भावं निगूहयन् ।
येन केनाऽपि यत्नेन स्वकार्यं साधयेच्चरः 116 ||
कुरल का. प. छे. 59
अर्थ :गुप्तचरों को बाहर कि वे साधु, तापसी, सन्तों का वेष धारण करें और खोजकर सच्चा भेद निकाल
238