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नीति वाक्यामृतम्
N किस समय विग्रह करना आदि का ज्ञान करना । कहाँ की भूमि उर्वरा है कहाँ की बंजर, कहाँ कौन वस्तु उत्पन्न होगी आदि का विवेक करना तीसरा मन्त्र का देशकाल अग है । किसी विद्वान ने कहा है :--
यथात्र सैंधवस्तोये स्थले मत्स्यो विनश्यति । शीयं तथा महीपालः कुदेशं प्राप्य सीदति ॥1॥
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यथा काको निशाकाले कौशिकश्च दिवा घरन् ।
स विनश्यति कालेन तथा भूपो न संशयः ।।2।। अर्थ :- जिस प्रकार पानी में नमक और भूस्थल पर आई मछली नष्ट हो जाती है उसी प्रकार कुदेशखोटे देश को प्राप्त कर नृपति भी शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है ।
जिस प्रकार काक निशाकाल में और उल्लू - दिन में घूमता हुआ नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार राजा भी वर्षाकाल आदि खोटे समय पाकर नष्ट हो जाता है । अर्थात् वर्षा ऋतु में युद्ध करने वाला राजा भी निःसन्देह अपनी सेना को कष्ट में डाल देता है ।।
4.विनिपात प्रतिकार :- आई हुयी विपत्तियों के विषय में विचार करना कि यें क्यों आई अब इनके निवारण का उपाय क्या है ? आये हुए इन विध्नों का निवारण किस प्रकार किया जाय यह मंत्र का "विनिपात प्रतिकार" नाम का मंत्र है ! किसी विद्वान ने कहा है :
आपत्काले तु सम्प्राप्ते यो न मोहं प्रगच्छति
उधमं कुरुते शक्त्या स तं नाशयति ध्रुवम् ॥ अर्थ :- जो मनुष्य आपत्ति पड़ने पर मोह (अज्ञान) को प्राप्त नहीं होता और यथाशक्ति उद्योग-प्रयत्न करता है वह उस संकट को नष्ट कर देता है । अत: मंत्र का "विनिपात प्रतिकार" नामक मन्त्र अङ्ग है ।
5. कार्यसिद्धि:-उन्नति, अवनति और सम-अवस्था यह तीन प्रकार की कार्य सिद्धि है । जिन सामादि उपायों से विर्जिगीषु राजा अपनी उन्नति, शत्रु की अवनति या दोनों की सम-अवस्था को प्राप्त हो, यह कार्य "सिद्धि नामक" पांचवां अङ्ग है । किसी विद्वान ने कहा है :
सामादिभिरुपायैर्यो कार्य सिद्धि प्रचिन्तयेत् । न निर्वेगं क्वचिद्याति तस्य तत् सिद्धयति ध्रुवम् ।।1॥
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अर्थ :- जो मनुष्य, साम, दाम, दण्ड व भेद उपायों से कार्य सिद्धि चिन्तवन करता है और कहीं पर उससे विरक्त नहीं होता, उसका कार्य निःसन्देह निश्चय से अवश्य सिद्ध होता है ।।। ।। अतएव मन्त्री का "कार्य सिद्धि"
नामा पाँचवां मन्त्राङ्ग अवश्य होना चाहिए ।। राज्यवृद्धि व सुरक्षा की अभिलाषा वाले राजा को पञ्चाङ्ग युक्त मन्त्रियों KIसे एकाद से या मन्त्रिमण्डल से मन्त्रणा कर कार्य करना चाहिए 125 ॥
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