________________
नीति वाक्यामृतम्।
विशेषार्थ :- कुल एवं वंशपरम्परा का सम्बन्ध रक्त से होता है - रक्त का स्वभाव से सम्बन्ध होता है । न शुद्ध स्वभाव कुल-वंश के अनुसार होता है । रैभ्यविद्वान ने भी अपने विचार व्यक्त किये हैं :
यदि स्याच्छीतलो वन्हिः सोष्णस्तु रजनीपतिः ।
अमृतं च विषं भावि तत्कुलीनेषु विक्रिया ।।1। अर्थ :- यदि अग्नि शीतल हो जाये, चन्द्रमा शीतलता को छोड़कर उष्ण हो जाये, अमृत विष रूप परिणत हो जाये तो भी कुलीन पुरुष अपना स्वभाव नहीं छोड़ता है 1 अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार अग्नि शीतल नहीं हो सकती, चन्द्रमा उष्ण नहीं हो सकता, अमृत विष नहीं हो सकता उसी प्रकार उच्चवंशज व्यक्ति भी धोखेबाज नहीं हो सकता । स्वामीद्रोह नहीं कर सकता । हमारे जैनाचार्य भी मन्त्री का लक्षण करते हुए कहते हैं :
निर्विरोऽस्तु भूपालो यदि वा कार्य बाधक :
तथाऽपि मंत्रिणा वाच्यं हितमेव नरेश्वरे ॥४॥ अर्थ:
बाधक अथवा अज्ञ भी, नृप हो यदि साक्षात् ।
तो भी मंत्री भूप को, बोले हित की बात ॥8॥ अर्थात् - संभव है राजा अज्ञ-मूर्ख हो और हर कदम बाधाओं से घिरा हो, स्वयं ही काम में आड़ा आता हो, फिर भी मन्त्री का कर्तव्य है कि वह सदा वही राह उसे दिखावे कि जो नियम संगत और राज्य शासन योग्य
ज्ञानी मंत्री का ज्ञान भी नष्ट हो जाता है :
घटप्रदीपवत्तज्ज्ञानं मन्त्रिणो यत्र न परप्रतिबोधः 1118॥ अन्वयार्थ :- (यत्र) जहाँ-जिस ज्ञान से (पर प्रति बोधः) राजादि को प्रतिबोध ज्ञान न कराया जाय (तत्) वह (मन्त्रिण:) मन्त्री का ज्ञान (घटप्रदीपवत्र) घड़े में स्थापित दीपक के समान [अस्ति] है In8॥
यदि विद्वान होकर भी मन्त्री अपने स्वामी को सन्मार्गारूढ़ न करे तो उसका ज्ञान घड़े में बन्द दीपक के समान है क्योंकि उससे परोपकार कुछ भी संभव नहीं है ।
विशेषार्थ :- प्रदीप जलाया और उसे घट में स्थापित कर रख दिया, बाहर चारों ओर तम-तोम छाया रहा तो उस दीपक का प्रयोजन ही क्या है ? कुछ भी नहीं । उसी प्रकार मन्त्री राजनीति विद्या का पारंगत हो और अपने राजा को उचित योग्य परामर्श न दे तो उस सचिव का क्या लाभ ? कुछ भी नहीं । अत: वस्तु वही उपयोगी होती है जो समय पर कार्यकारी हो । इसी प्रकार अन्य भी विद्वान पुरुष का महत्व या गौरव उसी में है जो अपनी विद्वत्ता या ज्ञानगरिमा से अन्य को सन्मार्ग दर्शित करे । दूसरों को समझाने की कला में दक्ष हो । यदि वाह्य में
अन्य पदार्थों को प्रकाशित न करे तो दीपक जलना व्यर्थ है उसी प्रकार ज्ञानी से अन्यजन प्रभावित होकर सदाचारी, शिष्टचारी, नीतिनिपुण न बनें तो उस मन्त्री व विद्वान का होना भी व्यर्थ है । वर्ग विद्वान ने कहा है :
-
231