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नीति वाक्यामृतम्
वल्लभ देव ने भी कहा है :
कथन् चिदपवादं स न वेत्ति कुलवर्जितः । तस्मात्तु भू भुजा कार्यों मंत्री न कुलवर्जितः ॥1॥
अर्थ :- नीच कुल का व्यक्ति अपनी अपकीर्ति से नहीं डरता । अतः राजा को उसे अपना सचिव नहीं बनना चाहिए ।। उपर्युक्त कथन का विशेष समर्थन :
__ अलर्कविषवत् कालं प्राप्य विकुर्वते विजातयः ।।1॥ अन्वयार्थ :- (विजातयः) नीच जाति का मन्त्री (कालम्) समय (प्राप्य) पाकर (अलर्क:) पागल कुत्ते के (विषवत) विष के समान (विकर्वते) विरुद्ध हो जाता है ।
समय पाकर कुत्ते-पागलकुत्ते के काटने का विष मनुष्य को विषाक्त कर देता है उसी प्रकार नीच जातीय मन्त्री भी अवसर पाकर प्रजा को कष्ट पहुँचायेगा-विरुद्ध हो जायेगा ।
विशेषार्थ :- पागल कुत्ते के काटने पर उसकी दाढ़ का विष तत्क्षण विषाक्त नहीं करता, अपितु वर्षाकाल आने पर विष चढ़ता है । और कष्ट पहुंचाता है । इसी प्रकार नीच कुलीन मन्त्री आपत्ति पड़ने पर पूर्वकृत दोष का स्मरण कर विरुद्ध होकर कष्ट पहुँचाता है । अत: नीच कुलीन को मन्त्रि बनाना अनुचित है । वादरायण ने भी लिखा है :
अमात्या कुलहीना ये पार्थिवस्य भवन्ति ते ।
आपत्काले विरुध्यन्ते स्मरन्तः पूर्वदुष्कृतम् ॥ अर्थ :- जिस राजा का मन्त्रि नीचकुलोत्पन्न होता है वह राजा के ऊपर विपत्ति आने पर उसके विरुद्ध हो जाता है । वह उसके द्वारा किये पूर्व दुष्कृत्य का स्मरण कर बदले की भावना कर बैठता है । कभी-कभी प्राणघातक भी हो जाता है । अत: सचिव को उच्चकुलीन, शुद्धवंश का ही होना चाहिए । राजभक्त होने से ही वह राजा को राज्यवर्द्धक, प्रजा रक्षक सलाह-परामर्श दे सकेगा 16 || कुलीन मन्त्री का स्वरूप :
तदमृतस्य विषत्वं यः कुलीनेषु दोषसम्भवः ।।17॥ अन्वयार्थ :- (तद्) वह (अमृतस्य) अमृत का (विषत्वम्) विषपना है (य:) जो (कुलीनेषु) कुलीनउच्चपुरुषों में (दोषसम्भव:) दोष उत्पन्न करता है ।17।।
कुलीन पुरुषों में जो विश्वासघात करे वह अमृततुल्य भी विष के सदृश ही समझना चाहिए । अर्थात् जिस प्रकार अमृत विष नहीं हो सकता उसी प्रकार उच्च-निर्दोष कलोत्पन्न व्यक्ति राजद्रोही विश्वास-घाती भी नहीं हो । सकता ।
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