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________________ - - - - - -नीति वाक्यामृतम् - सुगुणाद्योऽपि यो मन्त्री नृपं शक्तो न बोधितुम् । निरर्थका भवन्त्यन्ते गुणा घट प्रदीपवत् ।। अर्थ :- जो मन्त्री अनेक सद्गुणों से विभूषित होने पर भी यदि राजा को समझाने की कला में चतुर-निपुण न हो तो उसके समस्तगुण घड़े में धरे प्रदीप के समान निष्फल हैं-कार्यकारी नहीं हैं । अतएव मन्त्रि को अपने अभिप्राय को समझाने में चतुर-कुशल होना चाहिए Im8॥ शास्त्रज्ञान की निष्फलता : तेषां शस्त्रमिव शास्त्रमपि निष्फलं येषां प्रतिपक्ष दर्शनाद्भयमन्वयन्ति चेतांसि ।।19॥ अन्वयार्थ :- (येषाम्) जिन पुरुषों के (चेतांसि) चित्त में (प्रति पक्षदर्शानात्) शत्रु के देखने से (भयम्) भीति (अन्वयन्ति) उत्पन्न होती है (तेषाम्) उनका (शस्त्रम्) हथियार के (इत्र) समान (शास्त्रम्) शास्त्रज्ञान (अपि) भी (निष्फलम्) व्यर्थ [भवति] होता है ।। जिन पुरुषों के चित्तों में शत्रु को देखते ही भय संचरित होता है उनका शस्त्र और शास्त्र दोनों ही व्यर्थ विशेषार्थ :- शस्त्राभ्यास उनका ही सफल है जो निर्भय युद्ध कर सके उसी भांति शास्त्र ज्ञान उसका ही सफल है जो दूसरों का सन्मार्ग दर्शन कर सकें । अर्थात जिन वीर पुरुषों के चित्त शत्रुदल देखते ही कम्पित हो जाते हैं उनका शस्त्र धारण करना व्यर्थ है । उसी प्रकार जिन विद्वानों का वादियों को अवलोकन करते ही प्रतिवाद करने को समक्ष न रह सकें - भय से भागें तो उनका शास्त्रज्ञान भी व्यर्थ है । वादरायण विद्वान ने भी इस सम्बन्ध में लिखा है : यथा शस्त्रज्ञस्य शस्त्रं व्यर्थं रिपुकृताद् भयात् । शास्त्रजस्य तथा शास्त्रं. प्रतिवादि भयाद भवेत ॥ अर्थ :- जिस प्रकार कोई योद्धा शस्त्र विद्यानिपुण होकर भी समर से भयभीत हो जावे तो उसकी शस्त्रसञ्चालन विद्या व्यर्थ है उसी प्रकार जो अनेक शास्त्रों का अध्येता होता हुआ भी शास्त्रार्थ करने में भीत हो तो उसका विद्यार्जन करना भी निरर्थक है व्यर्थ है ।। और भी इसी विषय में स्पष्टीकरण: तच्छस्त्रं शास्त्रं च वात्मपरिभवाय यन्न हन्तिपरेषां प्रसरम् ।।20॥ अन्वयार्थ :- (तत्) वह (शस्त्रम्) आयुध (वा) अथवा (तत्) वह (शास्त्रम्) शास्त्र ज्ञान (यत्) जो (परेषाम्) शत्रुओं को (न-हन्ति) नहीं नष्ट करते हैं (च) और (न परेषाम्) परवादियों के (प्रसरम्) प्रसार को [न] नहीं [हन्ति] नष्ट करते हैं | तौ] वे दोनों (आत्मपरिभवाय) आत्मा का तिरस्कार अर्थात् पराजय करने वाले [स्त:] होते जिस सुभट का शस्त्र बढ़ती हुई शत्रु सेना का विनाश नहीं कर सकता वह शस्त्र संचालन विद्या उसकी 232
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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