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नीति वाक्यामृतम्
अन्वयार्थ :- (समस्त पक्षपातेषु) सभी पक्षपातों में (स्वदेशपक्षपातो) अपने देश का पक्ष (महान्) विशेष अधिक [पवति होला है ।
स्वाभिमानी मनुष्य के अपने देश के प्रति विशेष माढ अनुराग होता है ।
विशेषार्थ :- स्वदेश व स्वराज्य प्रायः अति निकट सम्बन्धी हैं । जो व्यक्ति अपने देश व राज्य के गौरव की रक्षा और शत्रु दल का नाश करना जानता है वही अपने राजा को उचित मन्त्रणा देने में समर्थ होता है । कहा
भेदकरे रिपुवर्ग में मित्रों में अतिसख्य । सन्धिकला में दक्ष जो वही सचिव है भव्य ॥३॥
कुरल, प. से. 64.
अर्थ :- जिसमें शत्रुओं के मध्य भेद डालने की क्षमता है, जो वर्तमान मैत्री भावों को बनाने में समर्थ हैमित्रमण्डल की वृद्धि कर सकता है, बैरियों के साथ उचित सन्धि करने की कला में निपुण है, वही प्रधान सचिव बनने योग्य होता है । अपने देश में उत्पन्न व्यक्ति इन गुणों में निपुण होकर राज्य-राष्ट्र की रक्षा योग्य राजा को सलाह, राय या परामर्श देने में समर्थ होता है । अन्य देश के व्यक्ति को यदि प्रधान सचिव्य प्रदान किया जायेगा तो वह राज्य वृद्धि में सफल नहीं हो सकेगा । कारण उसे वहाँ की प्रजा के आचार-विचार, क्रिया-कलापों का ज्ञान नहीं होता । प्रजा की इच्छा को वह कैसे समझ सकता है ? फिर जन्म भूमि की ममता भी स्वाभाविक होती ही है । वह अपने देश का पक्षपात करेगा । पक्षपाती पिशाच ग्रसित व्यक्ति भला प्रजा की क्या रक्षा करेगा ? अर्थात् नहीं कर सकता । राजनीतिज्ञ स्वयं सोच सकता है ? दुराचार से होने वाली हानि :
विषनिषेक इव दुराचारः सर्वान् गुणान् दूषयति ।।7॥ अन्वयार्थ :- (विषनिषेक) विषभक्षण (इव) समान (दुराचारः) दुराचार (गुणान्) गुणों को (दूषयति) दूषित कर देता है ।।
विष भक्षण से जिस प्रकार प्राण नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार दुराचरण मनुष्य के समस्त गुणों को नष्ट कर देता है ।
विशेषार्थ :- कुत्सित और निंद्य प्रवृत्ति गुणों की संहारक होती है । विद्या, कला, नीतिमत्ता आदि मानवोचित गुणों को अथवा राज्य की वृद्धि और रक्षा करने वाले सन्धि और विग्रह आदि पाइगुण्य को विष समान नष्ट कर देती है । ऋषि विद्वान ने लिखा है :
दुराचारममात्यं यः कुरुते पृथिवीपतिः
भूपास्तिस्य मंत्रेण गुणान् प्रणाशयेत् ॥1॥ अर्थ :- जो राजा दुराचारी मंत्री को नियुक्त करता है, वह उसकी खोटी सलाह से अपने राजोचित सद्गुणों
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