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नीति वाक्यामृतम्
सन्धिविग्रह - आदि षाड्गुण्य को खो बैठता है नष्ट कर डालता है ! ॥1 ॥
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निष्कर्ष :- राजा का मन्त्री सदाचारी होना चाहिए । अन्यथा उसके दुराचरण होने से राज्यवृक्ष का मूल ( राजनैतिकज्ञान) और सैनिक संगठन आदि सद्गुणों के अभाव से राज्य की क्षति सुनिश्चित ही है 17 ॥ प्रधानमंत्री के कुलीन न होने से हानि :
दुष्परिजनो मोहेन कुतोऽप्यपकृत्य न जुगुप्सते ॥ 8 ॥
अन्वयार्थ ( दुष्परिजनो ) खोटे कुल का मंत्री (मोहेन) मोहवश (कुतो) कहाँ (अपि) भी (अपकृत्यम्) खोटे आचरण को (न) नहीं (जुगुप्सते) ग्लानि करता है ।
नीच कुलोत्पन्न व्यक्ति यदि प्रधानमन्त्री बनेगा तो वह राजा से क्या प्रजा से भी भीत न होगा । सर्वत्र ग्लानि से भरा रहेगा अर्थात् अपने दुराचार से बाज नहीं आयेगा । लज्जा नहीं रहेगी । मनमाना व्यवहार करेगा । अतः उच्चकुलीन मंत्री होना चाहिए ।
व्यसनी मन्त्री से हानि :
सव्यसन सचिवो राजारूढ़ व्यालगज इव नासुलभोऽपायः ॥ 9 ॥
अन्वयार्थ :- ( सव्यसन) व्यसनी (सचिव : ) प्रधानमन्त्री वाला (राजा) नृपति (आरुढ़ व्यालगज) पागल गज पर आरूढ़ (इव) के समान (असुलभः) कठिन (अपायः) अहित (न) नहीं है ।
जिस राजा का स्वभाव से व्यसनासक्त मन्त्री उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे उन्मत्त हाथी पर सवार होकर जाने वाला व्यक्ति अतिशीघ्र नष्ट हो जाता है ।
विशेषार्थ :- जिस भूपाल का प्रधानमंत्री द्यूत, मद्यपान, परस्त्री सेवन, मांसभक्षणादि व्यसनों का सेवन करने वाला हो तो उस राजा का शीघ्रता से नाश हो जाता है। क्योंकि वह राजा पागल हस्ती पर चढ़े हुए मनुष्य को सदृश है। मंत्री का लक्षण बताते हुए आचार्य कहते हैं :
विद्या पढ़कर भी बनो, अनुभव से भरपूर 1 और करो व्यवहार वह, अनुभव जहाँ न दूर 117 ॥
कुरल. प.छे.64
अर्थ :करो। अनुभूति जन्य ज्ञान का व्यवहार करने वाला राज्य को सुदृढ़ बना सकता है ।
राजद्रोही मन्त्री भयंकर शत्रु है :
पुस्तकीय ज्ञान में सुदक्ष होने पर भी मंत्री को कहते हैं व्यावहारिक ज्ञान, अनुभव जन्य ज्ञान प्राप्त
मन्त्र भवन में मंत्रणा, जो दे नाश स्वरूप । सप्तकोटि रिपु से अधिक, वह अरि मंत्री रूप ॥
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