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नीति वाक्यामृतम्
ऐतिहासिक प्रमाण :
तथा चानुश्रूयते विष्णुगुप्तानुग्रहादनधिकृतोऽपि किल चन्द्रगुप्तः साम्राज्यपदमवापेति ॥4॥
अन्वयार्थ :- (तथा) वैसा (अनुश्रूयते) सुना जाता है (च) और इतिहास कहता है (विष्णुगुप्तस्य) विष्णुगुप्त के (अनुग्रहात्) कृपा से (अनधिकृतः) अधिकारी नहीं होने पर (अपि) भी (किल) निश्चय से (चन्द्रगुप्तः) चन्द्रगुप्त (साम्राज्यपदम्) राज्यपद (मोटि) प्राप्त किया ।
इतिहास में उल्लेख आया है कि चन्द्रगप्त मौर्य (सम्राट नन्द का पुत्र) ने स्वयं राज्य का अधिकारी न होने पर भी विष्णुगुप्त - चाणक्य नामक विद्वान ने अनुग्रह से साम्राज्य पद प्राप्त कर लिया ।।
322 ई. पू. में नन्दवंश का राजा महापद्मनन्द मगध का सम्राट् था । नन्दवंश के राजा अत्याचारी शासक थे, इसलिए उनकी प्रजा उनसे अप्रसन्न हो गई और अन्त में विष्णुगुप्त-चाणक्य ब्राह्मण विद्वान की सहायता से इस वंश के अन्तिम राजा को उसके सेनापति चन्द्रगत मौर्य ने 322 ई.प. में गद्दी से उतार दिया और स्वयं राजा बन बैठा । मैगास्थनीज यूनानी राजदूत ने जो कि चन्द्रगुप्त के दरबार में रहता था, चन्द्रगुप्त के शासन प्रबन्ध की बड़ी प्रशंसा की है । इसने 24 वर्ष पर्यन्त नीति न्यायपूर्वक राज्यशासन किया । कथासरित सागर में भी लिखा है कि नन्द राजा के पास 99 करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ थी । अतएव इसका नाम नवनन्द था । इसी नन्द को मरवाकर चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध के शासन-राजगद्दी पर बैठाया था किन्तु इतने विशाल साम्राज्य के अधिपति की मृत्यु के बाद सरलता से उक्त साम्राज्य को हस्तगत करना सामान्य बात न थी टेढ़ी खीर थी । नन्द के मन्त्री राक्षस आदि नन्द की मृत्यु के बाद उसी के वंशजों में से किसी को राजा बनाकर मगध राज्य को कायम रखने का प्रयत्न कर रहे थे । इन्होंने चाणक्य और चन्द्रगुप्त की सम्मिलित शक्तियों का बड़ी कठोरता से विरोध किया । दृढ़ता से परास्त करने की चेष्टा की । कवि विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस नाटक में लिखा है कि "शक, यवन, कम्बोज व पारसी आदि जाति के राजा चन्द्रगुप्त और पर्वतेश्वर की सहायता कर रहे थे । करीब 5-6 वर्षों तक चन्द्रगुप्त को नन्दवंश के मन्त्रियों ने पाटलिपुत्र में प्रवेश नहीं करने दिया, किन्तु विष्णुगुप्त - चाणक्य (कौटिल्य) की कुटिल नीति के समक्ष उन्हें झुकना पड़ा । चन्द्रगुप्त विजयी हुआ । चाणक्य के सहाय्य से नन्दवंश का मूलोच्छेद कर सुगांगप्रासाद में ससमारोह प्रवेश किया । शुक्र नामक विद्वान ने भी लिखा है :
महामात्यं वरो राजा निर्विकल्पं करोति यः । एकशोऽपि महीं लेभे हीनोऽपि वृहलो यथा ।।1।।
अर्थ :- जो राजा राजनीति में निपुण महामात्य-प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करने में किसी प्रकार का विकल्प नहीं करता, वह अकेला होने पर भी राज्य लक्ष्मी को प्रास कर लेता है । जिस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य ने अकेले भी चाणक्य मंत्री की सहायता से नन्दवंश का नाश कर विशाल साम्राज्य को हस्तगत कर लिया । यद्यपि राजनीति में कटनीति भी अपना अधिकार रखती है तो भी न्यायपूर्वक ही राज्यशासन विशेष स्थायी व प्रशंसनीय होता है 144॥
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