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________________ नीति वाक्यामृतम् पिरोहितादि के आश्रय से श्रेष्ठ राज संचालक हो जाता है 1 ख्याति प्राप्त होकर प्रजावत्सल व शत्रुओं को भयोत्पादक होकर यशस्वी बन जाता है । प्रायः राजाओं की बुद्धि भोग-विलासों से कुण्ठित हो जाती है । नष्ट प्राय व विभ्रमचित्त हो जाते हैं । अतएव संधि, विग्रह, यान आसन और द्वैधीभाव आदि षाडगुण्य-नीति के प्रयोग में गलती करने लगता है । जब वह मन्त्री, पुरोहित व सेनापति के परामर्श से वह यथार्थ मार्ग पर आ जाता है मुर्खता और अयोग्यता सुयोग्यता में परिणत हो जाती है । यदि राजा अपने सलाहकारों से मिलकर कार्य करता है तो मूर्ख होने पर भी शासन बराबर चलता रहता है । वल्लभदेव विद्वान ने भी लिखा है : उत्तमानां प्रसङ्गेन लघवो यान्ति गौरवम् । पुष्पमाला प्रसङ्गेन सूत्रं शिरसि धार्यते ॥1॥ अर्थ :- सामान्य, निर्गुण व्यक्ति भी यदि सत्संगति करता है, उत्तम पुरुषों को सगांत करने से तुच्छता त्याग देता है, उत्तम-सदाचारी बन जाता है । जिस प्रकार पुष्पमाला में गूंथ कर सूत्र भी सिर पर धारण कर लिया जाता है । सूत्र-धागा कोई शिर में नहीं लगाता परन्तु पुष्यों को गूंथ कर माला रूप धारण हो जाने पर प्रसन्नता और सरलता से शिर पर धारण कर लिया जाता है ।।2॥ उपर्युक्त कथन का दृष्टान्त : महद्भि पुरुषैः प्रतिष्ठितोऽश्मापि भवति देवः किं पुनर्मनुष्यः ॥३॥ अन्वयार्थ :- (महर्भि) महान (पुरुषैः) पुरुषों द्वारा (प्रतिष्ठितः) मन्त्रसंस्कारित होने पर (अश्म:) पाषाण (अपि) भी (देवः) देव (भवति) हो जाता है (पुन:) फिर (किं मनुष्यः) मनुष्य की क्या बात ? महात्माओं द्वारा प्रतिष्ठित अचेतन पाषाणादि की प्रतिमा भी पूज्य देव हो जाती है तो फिर चेतन मनुष्य की क्या बात ? वह तो प्रभावित होगा ही । विशेषार्थ :- सत्पुरुषों की मित्रता दिव्यग्रन्थों के (समान) स्वाध्याय सदृश है । जितनी ही गहरी उनके साथ मित्रता या घनिष्टता होती जायेगी उतने ही अधिक रहस्य उनके अन्दर दृष्टिगोचर होने लगेंगे और वे अपने में प्राप्त होंगे । हारीत विद्वान ने लिखा है : पाषाणोऽपि च विबुधः स्थापितो यैः प्रजायते । उत्तमैः पुरुषस्तैस्तु किं न स्यान्मानुषोऽपरः ।। अर्थ :- उत्तम पुरुषों से प्रतिष्ठित कर स्थापित पाषाण भी भगवान हो जाता है । पूजा जाता है । फिर उत्तम पुरुषों द्वारा संस्कारित मनुष्य की बात ही क्या है ? वह मूर्ख भी चतुर, योग्य महापुरुष हो ही सकता है ।11॥ सारांश यह है कि राजा को चाहिए अपने राज्य की सुव्यवस्था के लिए योग्य राज्यविद्याज्ञाता मन्त्री, पुरोहित, सेनापति आदि के साथ सलाह कर कार्य करना चाहिए | 3 || 221
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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