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नीति वाक्यामृतम्
अर्थ :- उक्त कथन के समर्थन में यहां कहा है कि "विद्वान मानव को सुख सम्पदा की प्राप्ति के लिए - विविध औषधियों की भाँति धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ का अनुष्ठान करना चाहिए 1125 || पूर्वक्ति कथन का समर्थन :
अहिदष्टा स्वागुलिरपि च्छिद्यते ।।26।। ___ अन्वयार्थ :- (अहिः) सर्प (दष्टा) डसी (स्वागुलिः) अपनी अंगुली (अपि) भी (च्छिद्यते) काट दी जाती है ।
यदि किसी की उंगली को सर्प डस ले तो उसके जहर से शेष शरीर की रक्षार्थ उस अंगुली को काट कर स्वयं मनुष्य फेंक देता है ।
विशेषार्थ :- जिस प्रकार विषैले अहि से इसी उंगली को विवेकी शेष शरीर को निर्विष रखने के उद्देश्य से उसे निर्दयता से काट कर फेंक देता है क्या बहुत बड़े लाभ को क्षणिक-अल्प शति सहना उत्तम है? जिस प्रकार वह स्वास्थ्य लाभ लेता है । इसी प्रकार सुयोग्य नीतिज्ञ राजा भी यदि स्वार्थ त्याग अपराधी को दण्ड देता है तो राज्य, राष्ट्र की रक्षा करता है वही यथार्थ ज्याची भूपाल राज्य को सुरक्षित और प्रजा को प्रसन्न रख सकता है । किसी नीतिकार विद्वान ने भी लिखा है :
शरीरार्थे न तृष्णा च प्रकर्तव्या विचक्षणैः । शरीरेण सत्ता वित्तं लभ्यते न तु तद्धनैः ॥
अर्थ :-- बुद्धिमान पुरुषों को शरीर के संरक्षणार्थ तृष्णा-लालच-लोभ नहीं करना चाहिए । क्योंकि शरीर के विद्यमान रहने पर धन प्राप्त होता है, परन्त अन्याय का धन कमाने से शरीर स्थिर नहीं रहता के कारण रुग्न होकर नष्ट हो जाता है । अधिक लाभार्थ क्षणिक अल्प हानि उठाना श्रेयस्कर है ।
इति वार्ता - समुहेशः ॥8॥
इति श्री परम पूज्य प्रातः स्मरणीय विश्ववंद्य, चारित्र चक्रवर्ती मुनि कुञ्जर समाधि सम्राट महानतपस्वी, वीतरागी दिगम्बर जैनाचार्य श्री आदिसागर जी अंकलीकर महाराज के पट्टाधीश तीर्थ भक्त शिरोमणि समाधि सम्राट् आचार्य रत्न प.पू. विश्व वंद्य आचार्य श्री 108 महावीर कीर्ति जी महाराज की संघस्था, प.पू. जगद्वंद्य कलिकाल सर्वज्ञ श्री108 आचार्य विमल सागर जी की शिष्या, ज्ञानचिन्तामणि प्रथम गणिनी 105 आर्यिका विजयामती जी द्वारा विजयोदय हिन्दी टीका में यह वां समद्देश परम प. भारत गौरव, तपस्वी सम्राट, सिद्धान्त चक्रवर्ती अंकलीकर आचार्य के तृतीय पदाधीश श्री 108 आचार्य सन्मति सागरजी महाराज के चरण सान्निध्य में समाप्त हुआ ।।
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