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________________ -नीतिकालयात ही नष्ट करने पर तुल जाते हैं। यहाँ तक कि दण्डित किये जाने पर भी निर्लज्ज हो अपनी संग्रह की भावना को नहीं छोड़ते । कहने का तात्पर्य यह है कि "काटे चाटे खान के दोऊ भांति विपरीत" समान इनकी दशा होती है। श्वान-कुत्ता काटे तो जहर चढ़ता है और चाटे तो भी खुजली रोग हो जाता है । अत: ऐसे लोगों को कठोर दण्ड देना ही चाहिए । इनकी उपेक्षा कदापि नहीं करनी चाहिए । ताकि भविष्य में कभी भी नीति विरुद्ध कार्य करने का साहस न करें । हारीत कहते हैं : वार्द्धषिकस्य दाक्षिण्यं विद्यते न कथंचन । कृत्याकृत्यं तदर्थ च कृतैः संख्यविवर्जितैः ।। अर्थ :- अन्न संग्रहकर दुर्भिक्ष पैदा करने वाले या अधिक ब्याज लेने वाले व्यापारियों के साथ असंख्यातवार भी उपकार किया जाय अथवा अनुपकार किया जाय अर्थात् दण्ड दिया जाय तो भी वे निर्लज्ज सरल नहीं होते अर्थात् दण्डित नहीं किये जाने पर कृतघ्न और दण्ड दिये जाने पर निर्लज्ज हो जाते हैं । निष्कर्ष यह है कि वे स्वार्थान्ध होकर राज्य-राष्ट्र और राजा की चिन्ता नहीं करते । ऐसे मक्कार वणिकों पर कडी दृष्टि रखना राजा का कर्तव्य है 1240 शरीर रक्षार्थ मानव का कर्तव्य: अप्रियमप्यौषधं पीयते ।।25।। अन्वयार्थ :- (औषधम्) दबाई (अप्रियम्) प्रिय नहीं होने पर (अपि) भी (पीयते) पी जाती है । शारीरिक स्वास्थ्य के लिए मनुष्य कटु औषधि भी प्रेम से पान करता है । फिर यदि मधुर औषधि हो तो कहना ही क्या है ? अर्थात् वह तो अवश्य ही सेवन की जाती है । विशेषार्थ :- जिस प्रकार शरीर को स्वस्थ, सुगठित व नीरोग बनाने के लिए मनुष्य कड़वी दबाई को भी सेवन करता है मधुर की तो बात ही क्या है उसी प्रकार उन्हें शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्राप्ति के लिए धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों का अनुष्ठान परस्पर की बाधा-रहित करना चाहिए 112511 नीतिकार वादीभसिंह सरि कहते हैं : परस्पराविरोधेन त्रिवर्गों यदि सेव्यते । अनर्गलमतः सौख्यमपवर्गोऽप्य नुक मात् ॥1॥ अर्थ :- यदि धर्म, अर्थ, काम इन तीनों वर्गों को अविरोध-समान रूप से सेवन किया जाय तो उससे मनुष्यों को बाधा रहित सुख की प्राप्ति होती है और क्रमशः मोक्ष सुख भी प्राप्त होता है । वर्ग विद्वान का कथन धर्मार्थकामपूर्वश्च भेषजैर्विविधैरपि । यथा सौख्यर्द्धिकं पश्येत्तथा कार्य विपश्चिता ।।1॥ 212
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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