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नीति वाक्यामृतम्
Nउक्त लात का दृष्टान्त द्वारा समर्थन :
काष्ठपात्र्यामेकदैव पदार्थो रध्यते ॥12॥ अन्वयार्थ :- (काष्ठपात्र्याम्) लकड़ी के पात्र में (एकदा) एक बार (एव) ही (पदार्थाः) भोजन-पदार्थ (रध्यते) पकता है ।
काठ की हाँडी एक बार ही चूल्हे पर चढ़ सकती है । इसी प्रकार अन्यायी राजा का दाब एक बार ही लग सकता है ।
विशेषार्थ :- जिस प्रकार काष्ठ के पात्र में भोजन बनाया जाय तो वह एक बार ही काम करता है पुनः जलकर नष्ट हो जाता है । इसी प्रकार जो राजा अपने कर्मचारियों पर कण्ट्रोल नहीं रखता, कर्मचारी लोग कम कीमत देकर उनका वलात् वस्तुओं को छीन लेते हों और टैक्स अधिक लें तो उसके यहां विदेशी वस्तुएँ आना ही बन्द हो जाती हैं । इस प्रकार आयात-निर्यात व्यवस्था ही समाप्त हो जाती है । शुक्र विद्वान ने लिखा है :
शुक्ल वृद्धिर्भवेद्यत्र वलान्मूल्यं निपात्यते । स्वप्नेऽपि तत्र न स्थानेप्रविशेद भाण्डविक्रयी ।।
अर्थ :- जिस राज्य में टैक्स बढ़ाया जाता है और मूल्य घटा दिया जाता है, वहाँ पर वस्तु बेचने वाले वणिक् जन स्वप्न में भी प्रवेश करना नहीं चाहते हैं ।
अभिप्राय यह है कि आयात-निर्यात् व्यवस्था को ठोस बनाने के लिए राजा को उचित टैक्स लगाना चाहिए और बहुमूल्य वस्तु को अल्पमूल्य में लेने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए । व्यापार कहाँ नष्ट हो जाता है ?
तुलामानयोरव्यवस्था व्यवहार दूषयति ।।13।। अन्वयार्थ :- (तुलामानयोः) तराजू व माप (अव्यवस्था) अव्यवस्थिति (व्यवहारम्) व्यवहार को (दूषयति) दूषित करता है।
व्यवहार को दूषित करने वाली मायाचारी है । वस्तुएँ लेन-देन करते समय तौलने के बटखडे कम-वेशी रखना और मापने के द्रोणी वगैरह पात्र भी छोटे बडे रखना यह व्यवहार को विकृत कर देता है ।
विशेषार्थ :- लोक में प्रायः देखा जाता है धनलोलुपी व्यापारी माल लेने के बाट अधिक भारी व तराजू के पलड़ो में पासंग रखते हैं और देने के बाट कमती रखते हैं । मापने के द्रोण आदि बडे-छोटे रखते हैं । इस प्रक्रिया से विश्वास नष्ट हो जाता है । लोक व्यवहार विकारी हो जाता है । शिष्ट पुरुषों का व्यापार लैन-दैन नष्ट
| इस अव्यवस्था व दरव्यवस्था से प्रजा को कष्ट होता है । अन्याय, असत्यादि की प्रवृत्ति प्रचलित होती है।
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