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मीति वाक्यामृतम् वर्ग विद्वान ने भी इस विषय में लिखा है
गुरुत्वं च लघुस्वं च तुलामान समुद्भवम् ।
द्वि प्रकारं भवेद्यत्र वाणिज्यं तत्र नो भवेत् ॥ अर्थ :- जिस राज्य में तराजू और तोलने-नापने के बाँट छोटे-बड़े रखे जाते हैं, वहाँ पर व्यापार नहीं चलता I || व्यापारियों द्वारा मूल्य बढाकर संचित धन से प्रजा की हानि :
वणिग्जनकृतोऽर्थः स्थितानागन्तुकांश्च पीड्यति In4॥ अन्वयार्थ :- (वणिक् जन) व्यापारी (कृतः) किया हुआ (अर्थ:) संचित धन (स्थितान्) वहीं स्थित (च) और (आगन्तुकान्) आगत जनों को (पीडयति) पीड़ा देता है 114॥
व्यापारीजन स्वेच्छापूर्वक क्रय-विक्रय की वस्तुओं में मनमाना मूल्य बढ़ाकर विक्रय करना, एवं धन सञ्चय. करते हैं । इससे तत्रस्थ प्रजा को तथा बाहर से आये हुए व्यक्तियों को महान कष्ट होता है । दारिद्रजन्य पीड़ा होती है ।
महीपती का कर्तव्य है कि वह व्यापारियों की व्यवस्था सम्यक प्रकार करे । जो व्यापारी मनमाना मूल्य लेकर वस्तु विक्रय करते हैं और अल्पतम मूल्य देकर खरीदते हैं । वहाँ प्रजा में दरिद्रता पांव तोड़ कर बैठ जाती है । दरिद्रता संसार में सबसे बड़ा संकट है । देश, राष्ट्र, प्रजा, राजा सब ही सम्पत्ति के अभाव से शक्तिहीन हो सकते हैं । हारीत विद्वान लिखता है :
वणिग्जनकृतो योऽर्थोऽनुज्ञानश्च नियोगिभिः । भूपस्य पीड्येत् सोऽत्र तत्स्थानागन्तुकानपि ।।1॥
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अर्थ :- व्यापारियों द्वारा मूल्य बढ़ाकर संचित किया हुआ और राजकर्मचारियों द्वारा घूस-रिश्वत में संचित धन, वहां की जनता और बाहर से आये आगन्तक जनों एवं राजा को भी निर्धन-दरिद्री बना देता है 1114॥ वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करने के विषय में :
देश-काल-भाण्डापेक्षया वा सर्वा| भवेत् ।15।
अन्वयार्थ :- (देश) क्षेत्र (काल) समय (भाण्डापेक्षया वा) अथवा पदार्थों के ज्ञान की अपेक्षा (सर्व) सम्पूर्ण वस्तुओं का (अर्घ:) मूल्य (भवेत्) होना चाहिए ।
अन्न, वस्त्र, सुवर्णादि का मूल्य निर्धारण, देश, काल व पदार्थों के उत्पादनादि की अपेक्षा निर्धारित करना चाहिए।
विशेषार्थ :- राजा ज्ञात करे कि मेरे राज्य में व अन्य देश में अमुक वस्तु उत्पन्न हुई या नहीं ? कितनी
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