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________________ नीति वाक्यामृतम् होते हैं । कृषि व्यापार भी गोधन से ही होना संभव हैं । अतः इस प्रकार की उन्नति के लिए गोधन रक्षा परमावश्यक है । सांसारिक कार्य-कलाप गोधन पर ही आश्रित रहते हैं । शुक्र विद्वान ने भी कहा है : चतुष्यदादिकं सर्व स स्वयं यो न पश्यति । तस्य तन्नाशमभ्येति ततः पापमवाप्नुयात् ॥11॥ अर्थ :- जो मनुष्य गाय-भैंस आदि पशुओं की संभाल देख-रेख नहीं कर सकता उसका वह गोधन नष्ट हो जाता है। अकाल में मृत्यु के मुख में प्रविष्ट हो जाता है। जिससे उसे महान पाप बंध होता है। निष्कर्ष यह है कि महीपाल को राज्य राष्ट्र की समुन्नति के साधन व व्यापार के हेतू गोधन की रक्षा करना चाहिए। इसी का स्पष्टीकरण : वृद्ध - बाल - व्याधित- क्षीणान् पशून् वान्धवानिव पोषयेत् ॥19॥ अन्वयार्थ : (वृद्ध) जरापीडित (बाल) बैछछे, वच्छी (व्याधित) रोगी (क्षीणान् ) दुर्बल ( पशून् ) पशुओं की ( वान्धवान् ) बन्धुवर्ग सदृश - ( इव) समान (पोषयेत् ) पोषण करना चाहिए । जिस प्रकार अपनी सन्तान का लालन-पालन पोषण करते हैं उसी प्रकार पशुओं का भी भरण-पोषण करना चाहिए क्योंकि वे भी बाल-बच्चों समान हमारे आश्रित हैं ।। विशेषार्थ :- जिस प्रकार मनुष्य का कर्त्तव्य अपनी सन्तान के प्रति होता है उसी प्रकार अपने आश्रित पशुओं के प्रति भी समझना चाहिए । अपनी सन्तान व परिवार का पोषण हम हर पर्याय अवस्था में करते हैं उसी प्रकार पशुओं की भी बाल, वृद्ध, रुग्न, क्षीणादि समस्त अवस्थाओं में यथायोग्य व्यवस्था देख-भाल करना चाहिए । रुग्न व वृद्धावस्था में उनकी उपेक्षा नहीं करना चाहिए । विद्वान व्यास जी ने भी कहा है : अनाथान् विकलान् दीनान् क्षुत्परीतान् पशूनपि । दयावान् पोषयेद्यस्तु स स्वर्गे मोदते चिरम् ॥॥१॥ -- अर्थ जो कृपालु-दयाद्र हृदय मनुष्य अनाथ-माता-पिता विहीन लूले लंगडे, अन्धे आदि अगविहीन, भूखे-प्यासे दरिद्री, एवं पीड़ित पशुओं की रक्षा करते हैं- भरण-पोषण करते हैं, वे स्वर्ग में चिरकाल तक दिव्य भोगों को भोगते हैं। अर्थात् उन सेवकों को देवगति प्राप्त होती है । पशुओं के अकाल मरण का कारण : अतिभारो महान् मार्गश्च पशूनामकाले मरणकारणम् ॥10॥ अन्वयार्थ :- (अतिभारः) शक्ति से अधिक भार लादना (च) और (महान्) कठिन लम्बा (मार्ग) रास्ता पार कराने से (पशूनाम् ) पशुओं का ( अकाले) आयु पूर्ण होने से पहले ही (मरण) मृत्यु का ( कारणम्) कारण है । 203
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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