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________________ नीति वाक्यामृतम् है अपनी आय के अन्दर ही खर्च करे । कहावत है, "तेते पाँव पसारिये जेती लम्बी सौर" अपने ओढ़ने के वस्त्र की लम्बाई देखकर पाँव-पैर फैलाने से वे ढके रहेंगे अन्यथा खुले हो जायेगे । बुझिम इसी में है 'Cut your coal scording your cloth." आय के अनुसार व्यय करे । धान्य संग्रह न कर अधिक व्यय करने वाले राजा की हानि : तत्र सदैव दुर्भिक्ष यत्र राजा विसाधयति ।6।। अन्वयार्थ :- (यत्र) जहाँ (राजा) भूपति (विसाधयति) धान्य सञ्चय नहीं करता (तत्र) वहाँ (सदैव) हमेशा (दुर्भिक्षम्) अकाल [स्यात्) होगा । फसल की ऋतु में यदि राजा अनाज सञ्चय नहीं करे तो उस राजा के राज्य में सदा ही दुर्भिक्ष बना रहता विशेषार्थ :- जो राजा अपने राज्य में धान्य संग्रह नहीं करता और व्यय अधिक करता है, उसके राम में सदा काल अकाल-दुर्भिक्ष ही बना रहता है । क्योंकि उसे अपनी विशाल सेना के भरण पोषण करने के लिए अधिक रसद-अन्न की आवश्यकता होती है । इसलिए जब वह राज्य में से धान्य खरीद लेता है तो प्रजा को कमी हो जाती है । इस कारण दुर्भिक्ष हो जाता है । विद्वान नारद ने लिखा है : दुर्भिक्षेऽपि समुत्पन्ने यत्र राजा प्रयच्छति । निजायेंन निजं शस्यं सदा लोको न पीड्यते ॥1॥ अर्थ :- दुर्भिक्ष-फसल नष्ट हो जाने पर भी जहाँ भूपाल स्वयं अपनी धन राशि से धान्य-अनाज खरीद कर अपनी प्रजा में वितरण करता है, उसकी प्रजा पीडित नहीं होती । अपितु विशेष उत्साहित होती है। अतएव सुयोग्य-विचारज्ञ नृपति का कर्तव्य है सर्व प्रथम पर्याप्त मात्रा में अनाज संग्रह करके रखे ।। धन लोलुपी राजा की हानि : समुद्रस्य पिपासायां कुतो जगति जलानि ? ।।7।। अन्वयार्थ :- (समुद्रस्य) सागर की (पिपासायाम्) प्यास में (जगति) संसार में (कुतो) कहाँ से (जलानि) जल हो? यदि सागर स्वयं प्यास से पीड़ित हो तो भला संसार को जल कहाँ से प्राप्त होगा ? कहीं से भी नहीं। विशेषार्थ :- आगम में उल्लेख है कि लवण समुद्र में गंगा, सिन्धु आदि 14 नदियाँ चौदह-चौदह हजार नदियों के साथ गिरती हैं । आगे वाली तो और दूनी-दूनी नदियों को सहायक बनाकर ले जाती हैं और रत्नाकर की पिपासा शान्त करने का उद्यम करती हैं फिर भी यदि वह सन्तुष्ट नहीं हो तो फिर संसार में प्राणियों की पिपासा कैसे शान्त हो? अर्थात नहीं हो सकती । 201
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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