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________________ नीति वाक्यामृतम् पाप का कारण होता है तो फिर मनुष्य का अपमान किस प्रकार मान्य हो सकता है ? कदाऽपि नहीं । अभिप्राय यह है कि जड़ पदार्थों का भी योग्यतानुसार आदर-सत्कार करना युक्ति संगत है, लोकमान्य कहा जाता है तो फिर जीवन्त मानवादि का आदर-सत्कार क्यों न करना चाहिए? करना ही चाहिए । राज्य शासन में यदि राजा की मिट्टी की मूर्ति भी बना कर स्थापित की गई है तो उसका मृत्तिका व मलिनता की ओर ध्यान न देकर प्रजाजनों को उसकी आज्ञा पालन अनिवार्य और आवश्यक है, उसी प्रकार नैतिक और धार्मिक सत्पुरुषों को महापुरुषों के साधु-सन्तों के वाह्य मलिन वेष पर विचार न करके उनके त्याग, तपश्चरण, ज्ञानाराधन, ध्यान, संयम, आचार, विचार, शीलाचार, सदाचारादि सद्गुणों से लाभान्वित होना चाहिए । क्योंकि तिल्ली आदि का तैल निकालने पर भी बची खल्ली यद्यपि वाह्य में काली-मलिन दृष्टिगत होती है परन्तु गायों-भैंसों को खिलाये जाने पर वह उनके दुग्ध की वृद्धि करती है । उसी प्रकार राजा का शासन-आज्ञा, मलिन-कठोर होने के कारण राजसिक भावों से युक्त होने पर भी वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा स्थापन रूप विशुद्ध कार्य को उत्पन्न करती है । ठीक उसी प्रकार साधु का मलिन वाह्य वेष भी मानसिक विशुद्धि का कारण होने से पुण्य कार्य को उत्पन्न करता है । इसी प्रकार प्रसन्न मन से पाषाण विम्ब की उपासना व साधु भगवन्तों की भक्ति पूजा भी हमारी विशुद्धि की कारण बनती है । पुण्य की वृद्धि में सहकारी होती है। दूसरों का वाह्य आचार-विचार, सुन्दर वेष-भूषा, तड़क-भड़क सजावट, शृंगारादि हमारे पुण्य की वृद्धि नहीं कर सकते । हमारे पुण्य का वर्द्धन तो हमारी ही मानसिक शुद्धि व निर्मलता कर सकती है । अत: अपने योगों की शुद्धि बनाये इमान्ने का उपाय है देव, गुरु की गरे । उनके गुणों में अनुराग रखना । चारों वर्णों की पथक् प्रकृति-स्वभाव का वर्णन : दानादि प्रकृतिः प्रायेण बाह्मणानाम् ॥31॥ बलात्कार स्वभावः क्षत्रियाणाम् ।।32॥ निसर्गतः शाठ्यं किरातानाम् ॥33॥ ऋजुवक शीलता सहजा कृषिवलानाम ॥34 ।। अर्थ :- ब्राह्मणों का स्वभाव प्राय करके दानादि ग्रहण करना व देना है। दान देना-लेना, ईश्वर भक्ति करना, पूजा-पाठ करना-कराना, विद्याध्यन करना-कराना आदि का स्वभाव विनों में स्वभावत: पाया जाता है। अथवा-दया, दाक्षिण्यादि विप्रों का धर्म व स्वभाव है ।1।। दान शब्द "दैप्" धातु शोधने अर्थ से बना है। इसका अर्थ शुद्धि होता है तथा दानार्थक 'दा' धातु से निष्पन्न होने से दान अर्थ भी निकलता है। अतः दोनों अर्थ होते हैं। क्षत्रियों का स्वभाव दूसरों पर वलात्कार करने का होता है क्षत्रिय न्यायपूर्वक राज्यादि अधिकारों को बलात् सञ्चय करना और वृद्धि करना क्षत्रियों का धर्म है। 32 । किरातों - वणिकों की प्रकृति स्वभावतः शठता-मूर्खता, छल-कपट करने की होती है । व्यापार में वस्तुओं के आदान-प्रदान में मिलावट आदि करना इनका प्रकृतिदत्त स्वभाव होता है 183॥ . 194
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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