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________________ - नीति वाक्यामृतम् - उचित है, पश्चात् दान देकर यथा शक्ति अतिथि संविभाग कर स्वयं भोजन करना चाहिए । यह मनुष्य का सनातन धर्म है । गृहस्थ को मन्दिर में क्या करना चाहिए : देवागारे गते सर्वान् यतीनात्मसम्बन्धिनीर्जरती: पश्येत् ।।29॥ अन्वयार्थ :-- (देवागारे) मन्दिर में (गते) जाकर (सर्वान्) समस्त (यतीन्) साधुओं को (आत्मसम्बन्धिनी:) अपने कुल की (जरती:) वृद्ध स्त्रियों को (पश्येत) देखे-विनय करे । मनुष्यों को देवस्थान में जाकर प्रथम भगवान की भक्ति पूजा करनी चाहिए । पश्चात् समस्त उपस्थित साधुओं की भक्ति करना चाहिए । तत्पश्चात् अपने गृहस्थाचार में वृद्धनारियों को नमस्कार करना उचित है । 29॥ हारीत विद्वान ने भी कहा है : देवायतने च गत्वा सर्वान् पश्येत् स्वभक्तितः । तत्राश्रितान् यतीन् पश्चात्ततो वृद्धा कुलस्त्रियः ॥ अर्थ :- देवालय में जाकर प्रथम भगवद् भक्ति व पूजादि कर वहाँ स्थित मुनि-साधुओं को सम्मानादि प्रदान करे तत्पश्चात् कुल की वृद्ध-नारियों की श्रद्धा-भक्ति से नमस्कारादि कर प्रसन्न करे । लोकाचार पालन करना मानव का प्रमुख कर्तव्य है । गुरुभक्ति व माता-पिता का विनय आवश्यक है । सत्पुरुषों को अवश्य करना चाहिए । उपर्युक्त सिद्धान्त की समर्थक दृष्टान्तमाला: देवाकारोपेतः पाषाणेऽपि नावमन्येत तत्किं पुनर्मनुष्यः ? राजशासनस्य मृत्तिकायामिव लिंगिषु को नाम विचारों यतः स्वयं मलिनो खलः प्रवर्धयत्येव क्षीरं धेनूना, न खलु परेषामाचारः स्वस्य पुण्यमारभते किन्तु मनो विशुद्धिः 1800 अन्वयार्थ :- (देवस्य) भगवान के (आकार:) आकार को (उपेतः) प्राप्त (पाषाणे) उपल में (अपि) भी (न) नहीं (अवमन्येत्) अपमान किया जाता (पुन:) फिर (तत्) वह निरादर (किम्) क्या (मनुष्ये) मनुष्य में किया जाये? ___(राजशासनस्य) राजा की (मृत्तिकायाः) मिट्टी की मूर्ति (इव) समान (लिंगिषु) साधुओं के विषय में (को नाम विचार:) क्या विचार करना ? (यतः) क्योंकि (स्वयं) स्वतः (मलिन:) मलिन (खल;) खल्ली (धेनूनाम्) गायों के (क्षीरम्) दुग्ध को (प्रवर्धयति) (एव) निश्चय से बढ़ाती है (खलु) निश्चय से (परेषाम्) दूसरों का (आचार:) आचरण (स्वस्य) स्वयं के (पुण्यम्) पुण्य को (न) नहीं (आरभते) प्रारम्भ करता है (किन्तु) अपितु (मनः) मन की (विशुद्धिः) पवित्रता [प्रारभते] प्रारम्भ करती है । सामान्य पाषाण की प्रतिमा का भी तिरस्कार नहीं किया जाता तो फिर मनुष्य की क्या बात ? विशेषार्थ :- संसार में पाषाण निर्मित प्रतिमा की प्रतिष्ठा होने पर भगवान रूप धारण करती है उसका अपमान 193
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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