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मीति वाक्यामृतम् - - - - - मनुष्यों के कर्तव्यों का वर्णन :
सन्यस्ताग्नि परिग्रहानुपासीत् ।।27॥ अन्वयार्थ :- (सन्यस्ताः) साधुओं व (अग्निपरिग्रहान्) सद्गृहस्थों की (अनुपासीत्) उपासना करनी चाहिए। मनुष्यों को साधु-सन्तों व सदाचारी उत्तम गृहस्थों की उपासना करनी चाहिए ।
विशेषार्थ :- साधु, महात्मा और विद्वान गृहस्थाचार्य सदाचारी, स्वावलम्बी, बहुश्रुत व उत्तम चारित्रधारी होते हैं। इनकी सेवा, भक्ति, उपासना से मनष्य ज्ञानी. शिष्ट और कशल बनता है । परलोक में भी कल्याणकारी प्राप्त करता है। वल्लभदेव विद्वान ने भी कहा है:
यादशानां शृणोत्यत्र यादृक्षांश्चावसेवते ।
तादृक्चेष्टो भवेन्मय॑स्तस्मात् साधून् समाश्रयेत् ।।1।। अर्थ :- मानव जिस प्रकार के पुरुषों के वचनों का श्रवण करता है, जिस प्रकार के लोगों को सेवा व उपासना करता है, उसकी उसी प्रकार की चेष्टाएँ हो जाती हैं । अतः सत्पुरुषों का कर्तव्य है कि वह नित्यशः साधुओं की सेवा करे । आत्मकल्याणेच्छाओं को स्वात्मसाधक सन्तों की सङगति व सेवा करना चाहिए । स्नान किये मनुष्य का कर्त्तव्य :
स्नात्वा प्राग्देवोपासनान्न कंचन स्पृशेत् ।।28। अन्वयार्थ :- (स्रात्वा) स्नान करके (देवोपासनात्) भगवद पूजा से (प्राक्) पहले (कंचन) किसी को (न स्पृशेत्) स्पर्श न करे ।
स्नान के बाद सर्वप्रथम भगवान की पूजा करे । उसके पूर्व किसी का भी स्पर्श न करे । विशेषार्थ :- वर्तमान युग पाश्चात्य संस्कारों से रंगा है । उसकी मान्यता है छुआ-छूत कुछ नहीं है । यह
रूढि है । मानव समाज में भेद-भाव की खाई है । परन्त भारतीय संस्कति को यह मान्य नहीं है । हमारी धार्मिक परम्परा में स्पर्शास्पर्श का विवेक रखना अत्यावश्यक है । इसी की पुष्टी आचार्य श्री ने इस सूत्र में स्पष्ट की है । शुद्धाशुद्धि का ध्यान रखना परमावश्यक है । देवपूजा पूर्ण शुद्धि पूर्वक ही करना चाहिए उसी
1 भी पवित्रतापूर्वक किया जाना चाहिए क्योंकि पूजा आत्मा की शोधक है और भोजन आत्मगृह शरीर व उसके निवासी भाव-विचारों की उजवलता के साधन है । वर्ग नामक विद्वान ने भी लिखा है :
स्नात्वा स्वभ्यर्चयेत् देवान् वैश्वानरमतः परम् । ततो दानं यथाशक्तया दत्वा भोजनमाचरेत् ।।
अर्थ :- मनुष्य को स्नान करने अनन्तर अपने इष्ट देव की पूजा करनी चाहिए ! पुनः अग्नि होम करना ।
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