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नीति वाक्यामृतम्
कर्तव्य हैं । ये उपासकाध्ययन सूत्र के अनुसार कथित हैं 111 ॥
वैश्यों का कर्त्तव्य कृषि, व्यापार और पशुपालन द्वारा जीवन निर्वाह करना है । 1/2 शुक्र विद्वान ने भी इस विषय में कहा है :
कृषिकर्म गवां रक्षा यज्ञाद्यं दम्भवर्जितम् । पुण्यानि सत्रपूर्वाणि वैश्यवृत्तिरुदाहृता ॥ 11 ॥
अर्थ :- खेती - कृषि, गौरक्षा, दम्भ-कपट त्याग कर ईश्वर भक्ति करना, अन्नदान- सदावर्त आदि पूर्व कार्यों को करना वैश्यों की वृत्ति कही जाती है 1
सारांश यह है कि वैश्यों को उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त अन्य भी कार्य धर्मार्थ करने योग्य हैं । शूत्रों के कर्त्तव्य कहते हैं :
त्रिवर्णोपजीवनं, कारु कुशीलव कर्म पुण्यपुटवाहनं च शूद्राणाम् ॥10 ॥
अन्वयार्थ :- (शूद्राणाम् ) शूद्रवर्ण के ( त्रिवर्णोपजीविनम्) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ण की सेवा करना ( कारुकुशीलव कर्म) चित्र, गीत, नृत्य, भाट का कार्य (च) और (पुण्यपुटवाहनम् ) भिक्षुकों की सेवादि । शूद्रों का अपना कर्त्तव्य तीनों वर्णों की सेवा सुश्रुषा करना है। शिल्पकला - चित्र कलादि, गीत, नृत्य और वादित्र बजाना, भाट चारण आदि का काम करना एवं भिक्षुकों की सेवा करना है 1110
विशेष :- पाराशर विद्वान ने शूद्रों का कर्म निम्न प्रकार कहा है :
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वर्ण त्रयस्य शुश्रुषा नीच चारण कर्म च भिक्षूणां सेवनं पुण्यं शूद्राणां न विरुद्धयते ॥11॥
अर्थ :- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों की सेवा शुश्रुषा करना, शिल्पकला, गान विद्या, नृत्यकला, वाद्य वादन आदि से अपना जीवन निर्वाह करना चाहिए । यथा योग्य अन्य दान-पूजा करना अयोग्य नहीं हैं । परन्तु मर्यादानुसार योग्य हैं 1
भगवज्जिनसेनाचार्य जी कहते हैं :
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वर्णोत्तमेषु शुश्रूषा तद्वृत्तिनैकधा स्मृता 1/2" आ.पु.प.16.
अर्थात् विप्र, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन उत्तम वर्ण कहे जाते हैं, इनकी सेवा करना शूद्रों का कर्त्तव्य है और शिल्पकला एवं चित्रकला भी इनकी जीविका के साधन हैं ।
उत्तम शूद्रों-प्रशस्त या सच्छूद्रों का निरूपण :
सकृत् परिणयन व्यवहाराः सच्छूद्राः 1111 ॥
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