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________________ - नीति वाक्यामृतम् राजा को अपनी मनोवृत्ति प्रकाशित नहीं करना चाहिए । तुम सदैव मनोऽभिलाषा को छिपाये रखना । कार्य सम्पादन के पूर्व यह प्रकट नहीं हो कि तुम क्या करना चाहते हो । गुप्त नीति का आश्रय लेना । क्योंकि जो पुरुष अपने मन्तव्य को प्रच्छन्न रखते हैं और शत्र के अभिप्राय को फोड़-तोड कर पता लगाते हैं-मन्त्रभेद कर लेते हैं, वे शत्रुओं के लिए सदैव अगम्य बने रहते हैं ।। जिस प्रकार सूर्य समस्त आशाओं-दिशाओं अपने तेज-प्रताप से परिपूर्ण कर व्यास रहता है, तथा भूभृतपर्वत में उनका अलंकार रूप रहता है, उसकी किरणें निर्बाध पृथ्वी पर क्रीडा करती हैं उसी प्रकार तुम भी तेजस्वी होकर समस्त प्रजा की आशाओं की पूर्ति करना, एवं भूभृत-राजाओं के शिरोमणि मुकुट बनना । तुम्हारा टैक्स कर बाधा रहित भू पर व्याप्त हो-अनिवार्य हो ।10।। इस प्रकार न्याय-राजनीति की शिक्षा के साथ राजा ने अपने सयोग्य पुत्र श्रीवर्मा को राज्य प्रदान किया । उसने भी विनम्र हो पिता के अनुरोध से उसे स्वीकार किया । सुपुत्र वही है जो पिता की आज्ञानुसार कर्तव्य पालन करे 11॥ इस प्रकार सुनिश्चित होता है कि शास्त्री का अध्ययन करना, भगवद्भक्ति करना, पात्रदान देना साथ ही प्राणिरक्षादि सत्कर्तव्य क्षत्रियों का धर्म है 18॥ वैश्यों का धर्म निर्देश करते हैं : वार्ता जीवन मावेशिकमजनं सत्रप्रपा पुण्याराम दयादानादि निर्माणणं च विशाम् ।।१॥ अन्वयार्थ :- (वार्ता) व्यापार (जीवनम्) जीवन का साधन (आवेशिक पूजनम्) निष्कपट भगवद् पूजा (सत्र) सदावर्त (प्रपा) प्रयाऊ (पुण्याराम) शिक्षालयादि (च) और (दयादानादि) करुणादान आदि (विशाम्) वैश्यों को (कर्तव्य) करना चाहिए । वैश्यों का धर्म कृषि-खेती, पशुपालन, व्यापार द्वारा जीवन निर्वाह, निश्छल प्रभु भक्ति, अन्नदान, जल दान, प्याऊ लगाना अन्य भी कन्याविद्यालय, विधवाश्रम, बगीचा बनवाना, दानशालाएँ स्थापित कराना ये वैश्यों के कर्त्तव्य विशेषार्थ : श्री जिनसेनाचार्य जी ने इस सम्बन्ध में कहा है : इज्यां वातां च दत्तिं च स्वाध्यायं संयमं तपः । श्रुतोपासक सूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ॥ वैश्याश्च कृषि वाणिग्य पशुपाल्योपजीविनः । 1/2 आदि पुराणे ।। अर्थ .- तीर्थङ्कर भगवान आदि पञ्चपरमेष्ठियों की विधिवत् पूजा करना, शुद्ध वृत्ति से कृषि करना, पशुपालन करना, न्यायोचित व्यापार करना, सत्पात्रदान देना, सर्वज्ञप्रणीत आगम का अध्ययन करना, इन्द्रिय व मन को संयत रखना, षट्काय जीवों का रक्षण करना, तप करना, श्रुत की उपासना करना, सूत्रानुसार प्रवृत्ति रखना ये वैश्यों के 182
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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