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________________ नीति वाक्यामृतम् तेजस्विनः पूरयतोऽखिलाशा भूभृच्छिरः शेखरतां गतस्य । दिनाधिपस्येव तथाऽपि भूयात् कर प्रपातो भुवि निर्विबन्धः ॥10 ॥ इति क्षितीशः सह शिक्षयासौविश्राणयामास सुताय लक्ष्मीम् । aastu प्रतीष गुरुपरोधात् पितुः सुपुत्रो ह्यनुकूलवृत्तिः ॥11॥ अर्थ :हे वत्स ! यदि तुम महान् बनना चाहते हो तो, समस्त दुर्व्यसनों का त्याग कर अपने तेज से, सत्त्वरूप सागर की मर्यादा की रक्षा करना, सम्पूर्ण पृथ्वीमण्डल को शत्रुदल से रहित कर पालन करना । सागर पर्यन्य पृथ्वी के रक्षक बनो ॥॥1 ॥ जिस प्रकार चन्द्रवलोकन कर चक्रवाक् पक्षी प्रसन्न होता है, उसी प्रकार आपके अभ्युदय से प्रजा आनन्दानुभव करे। इस व्यवस्था के लिए अपने गुप्तचर नियुक्त करना । प्रजा को खेद न हो इस प्रकार का आचरण करना । अपने सेवकों को चक्षु बनाकर रखना ||2|| हे तात् ! यश वैभव की इच्छा से तुम प्रजा को नहीं पहुंचा। अपने हितैदियों को प्रसन्न रखना । क्योंकि नीति विशारदों का मन्तव्य है कि प्रजा को खुश रखना अपने प्रति अनुरक्त बनाना, प्रेम का व्यवहार करना चाहिए यही वैभव का मुख्य हेतू है | 13 | जो भूपाल विपत्ति रहित होता है, उसे नित्य ही अनायास सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं । जिस राजा का अपना परिकर वशी है, उसे कभी भी विपत्तियाँ परास्त नहीं कर सकतीं। यदि स्वयं का परिवार अधिकार में न हो तो बहुत सी विपत्तियाँ आ घेरती हैं ॥14 ॥ अपने कुटुम्ब को वशीभूत करने का उपाय सद्व्यवहार है । सबके प्रति कृतज्ञ रहना, सद्गुणों को आश्रय बनाना। कृतघ्नता बहुत खतरनाक है, अनेकों गुण रहने पर भी कृतघ्न के अनेकों शत्रु बन जाते हैं ॥15 ॥ हे सौम्यपुत्र ! तुम कलिकाल के दोषों से अलिप्त रहना । धर्म की रक्षा व प्रतिपालना करते हुए 'अर्थ' और 'काम' की वृद्धि करना । युक्तिपूर्वक जो राजा त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ और काम का सेवन करता है वह उभय लोक में सुखी रहता है। वर्तमान में यशस्वी होकर आनन्दानुभव करता है और परलोक में भी स्वर्गादि सुख पाता है । 16 11 अपने से बड़े वृद्ध मन्त्री, पुरोहित आदि से सलाह परामर्श कर बड़ी सावधानी से राज-काज व्यवस्था करना । गुरुजनों - उपाध्यायों की शिक्षा प्राप्त कर नरेश और वृहस्पति का शिक्षण प्राप्त सुरेश समान वैभव को प्राप्त करते हैं। अर्थात् नरेन्द्र भी सुरेन्द्र समान सम्पदा प्राप्त कर सुखी होता है 117 || प्रजा को सताने वाले कष्टदायी सेवकों को दण्ड देकर प्रजा के अनुकूलों को दान-सम्मान देकर पोषण करना । इस नीति से वन्दीजन तुम्हारा गुण कीर्तन करेंगे । इस प्रकार तुम्हारा धवलोज्वल यश दिग्दिगन्त व्यापी हो जायेगा । 8 ॥ 181
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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