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नीति वाक्यामृतम्
है । इन्हीं क्षत्रिय वीर पुरुषों के वंश में ही अहिंसा के अवतार-मूल-प्रवर्तक तीर्थकर 24 आदि उत्पन्न हुए हैं। क्योंकि 24 तीर्थड्कर, 12 चक्रवर्ती, १ नारायण 9 प्रतिमारायण 9 बलभद्र, ये 63 शलाका पुरुष सभी क्षत्रिय थे। इन सभी ने न्यायानुसार धर्म का प्रचार और अधर्म का संहार किया । क्षत्रियों की तलवार मूक या दुर्वलों पर नहीं चलती ।
श्रीसेन राजा संसार विरक्त हो जिनदीक्षा धारण को प्रयाण किया उस समय उसने अपने वीर पुत्र श्रीवर्माजो चन्द्रप्रभु भगवान की पूर्व पर्याय को निम्न प्रकार से छात्र धर्म का उपदेश दिया था, जिसे श्री वीरनन्दि आचार्य श्री ने चन्द्रप्रभ चरित्र में बड़ी ही ललित, हृदयस्पर्शी भाषा में मनोहारिणी पद्यरचना में गुम्फित किया है । प्राकर्णिक उपयुक्त समझ कर हम यहाँ प्रस्तुत करते हैं :
भवानपास्त व्यसनो निजेन धाम्नाब्धि मर्यादाभिमामिदा नीम् महीमशेषामपहस्तितारिवर्णोदयः पालयतु प्रशान्तः ।।1।। यथा भवत्यभ्युदिते जनोऽयमानन्दमायाति निरस्तखेदः । सहस्ररश्माविव चक्रवाको वृत्तं तदेवाचर चारचक्षुः ।।2।। वाञ्छन्विभूती: परम प्रभाया मोद्वीविजस्त्वं जनमात्मनीनाम् । जननुरागं प्रथमं हि तासां निबन्ध नीतिथिदो वदन्ति ।।३॥ समागमो निर्व्यसनस्य राज्ञः स्यात् सम्पदा निर्व्यसनत्वमस्य । वश्ये स्वकीये परिवार एव तस्मिन्नवश्ये व्यसनं गरीयः ।।। विधिस्सुरेनं तदिहात्मवश्यं कृतज्ञतायाः समुपैहि पारम् । गुणैरुपेतोऽप्यपरैः कृतजः समस्तमु द्वेजयते हि लोकम् ।।5॥ धर्माविरोधेन नयस्व वृद्धिं त्वमर्थकामौ कलिदोषमुक्तः । युक्त्या त्रिवर्ग हि निषेवमाणो लोक द्वयं साधयति क्षितीशः ।।6॥ बृद्धानुमत्या सकलं स्वकार्यं सदा विधेहि प्रहतप्रमादः । विनीयमानो गुरुणा हि नित्यं सुरेन्द्र लीलां लभते नरेन्द्रः ।।7।। निग्रहतो बाधक करान् प्रजानां भृत्यांस्ततोऽन्यान्नयतोऽभिवृद्धिम् । कीर्तिस्तथाशेष दिगन्तराणि व्याप्नोतु वन्दिस्तुत कीर्तनस्य ।।8॥ कुर्याः सदा संवृत्त चित्तवृत्तिः फलानुमेयानि निजे हितानि । गूढात्म मन्त्रः परमन्त्रभेदी भवत्यगम्यः पुरुषः परेषाम् ॥१॥
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