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नीति वाक्यामृतम्
पाराशर विद्वान ने भी कहा है :
क्षत्रियेण मृगाः पाल्याः शस्त्रहस्तेन नित्यशः ।
अनाथोद्धरणं कार्य साधूनां च प्रपूजनम् ॥ अर्थ :- क्षत्रिय वीर सुभटों को शस्त्रधारण कर नित्य ही मूक प्राणियों-पशु-पक्षियों की रक्षा करनी चाहिए न कि शिकार दुर्व्यसन द्वारा उनके प्राणों का हनन करे । अनाथों का उद्धार करना और साधु-सत्पुरुषों-महात्माओं की पूजा भक्ति करना चाहिए । क्षत्रियों का यही कर्तव्य है धर्म है । श्री भगवजिन सेनाचार्य ने भी कहा है कि :
क्षत्त्राणे नियुक्ता हि क्षत्रियाः शस्त्रपाणयः ।। 1/2आ:पु. अर्थ :- इतिहास के आदिकाल में अर्थात् कर्मभूमि के प्रारम्भ में आदि ब्रह्मा श्री ऋषभदेव तीर्थकर ने अपने हाथों शस्त्र धारण करने वाले वीर क्षत्रिय सुभट पुत्रों को अन्यायी (आततायी) दुष्ट पुरुषों से प्रजा की रक्षार्थ नियुक्त किया गया था । कहा है :
क्षत्रियाः शस्त्र जीवित्वमनुभूयतदाऽभवन् ।। 1/2 आदि पु.पर्व16,
भगवान ऋषभदेव के राज्यशासनकाल में क्षत्रिय लोग शस्त्रों से जीविका करने वाले शस्त्र धारण कर सेना में प्रविष्ट होने वाले होते थे । क्षत्रिय का रक्षण करे यही कर्तव्य है ।
आचार्य श्री ने यशस्तिलक चम्पू में लिखा है :भूत संरक्षणं हि क्षत्रियाणां महान् धर्मः, स च निरपराध प्राणिबधे निराकृतः स्यात् ।। पद्य में :
यः शस्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्यात् । यः कण्टको वा निजमण्डलस्य ।। अस्त्राणि तत्रैव नृपा क्षिपन्ति ।
दीनकानीनशुभाशयेषु ।।1।। अर्थ :- प्राणियों की रक्षा करना क्षत्रियों का महान् धर्म है, परन्तु निरपराध प्राणियों के वध करने से वह नष्ट हो जाता है।
युद्ध क्षेत्र में जो शत्रुओं का दमन करने को कटिबद्ध होते हैं । वे क्षत्रिय वीर पुरुष कहलाते हैं । वे राज्य के कण्टकों-दुराचारी, पापी और अन्यायी पुरुषों का दमन करते हैं, क्षत्रियों का खड्ग उन्हीं आततायिओं पर उठता है । वेचारे दीन-अनाथों, दुखियों पर नहीं उठता ।
निरर्थक हिंसादि पापों का त्याग करने वाले क्षत्रिय वीर पुरुषों को जैनाचार्यों ने व्रती-धार्मिक स्वीकार किया
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