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नीति वाक्यामृतम्
अर्थ :- ईश्वर भक्ति-पूजा, शास्त्रों का पढ़ाना और विशुद्ध शिष्ट पुरुष से दान ग्रहण करना ये तीन प्रकार के कार्य विप्रों की जीविका के साधन मुनियों ने कहे हैं।
भगवज्जिनसेनाचार्य ने भी लिखा है :
इज्यां वार्तां च दत्ति च स्वाध्यायं संयमं तपः । श्रुतोपासक सूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ।।1 ॥
आ. पु.प. 38श्लो. 24
अर्थ विप्रों के धार्मिक एवं जीवन यापन के कर्त्तव्य व साधन महाराज भरत ने उपासकाध्ययन के आधार पर इस प्रकार कहे हैं :
देव पूजा, वार्ता - विशुद्ध परिणामों से कृषि और व्यापार करना, पात्रों को दान देना, शास्त्र स्वाध्याय, संयमसदाचार और तपश्चर्या करना इन 6 सत्कर्तव्यों का उपदेश दिया है ।।
हारीत विद्वान ने भी कहा है :
यजनं याजनं चैव पठनं पाठनं तथा ' दानं प्रतिग्रहोपेतं षट्कर्माणि द्विजन्मनाम् ॥1 ॥
अर्थ :- ईश्वर भक्ति करना- कराना, शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन, दान देना लेना ये 6 ब्राह्मणों के कर्तव्य
है ।
क्षत्रियों के कर्त्तव्य वर्णन :
भूत संरक्षणं शस्त्राजीवनं सत्पुरुषोपकारो दीनोद्धरणं रणेऽपलायनं चेति क्षत्रियाणाम् ॥ 8 ॥
अन्वयार्थ :- (भूत) प्राणी (संरक्षण) रक्षा ( शस्त्रेण ) शस्त्रधारण से (आजीविनम्) जीविका चलाना ( सत्पुरुषोपकारः) सज्जनों का उपकार करना (दीनानाम्) दीनों का (उद्धरणम्) भलाई करना (रणे) संग्राम में (अपलायनम्) पीठ नहीं दिखाना (च) और (अपलापनम् ) पराजित हो नहीं भागना (इति) ये (क्षत्रियानाम् ) क्षत्रियों के कर्तव्य हैं ।
जिसको जिस वस्तु की आवश्यकता है, जो अभावग्रस्त है उन्हें उसी प्रकार की सामग्री जुटा देना क्षत्रियों का कर्त्तव्य है ।
विशेषार्थ :प्राणियों की रक्षा करना, शस्त्रविद्या से आजीविका चलाना, शिष्टपुरुषों का पालन करना, अन्धे, लूले अपाहिजों-दीन दुखियों की सेवा करना, युद्ध में मर मिटना, हार कर नहीं भागना यह क्षत्रियों का कर्त्तव्य
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