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नीति वाक्यामृतम्
अर्थात् - वेदों का अभ्यास करना, यज्ञ ईश्वर भक्ति करना एवं अपनी शक्ति के अनुसार यथायोग्य दान देना ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के साधारण- समान धर्म कहे गये हैं ।
ये
द्विजातियों का निर्देश
त्रयों वर्णाः द्विजातयः ॥16 ॥
[ एते] ये (त्रयः) तीनों (वर्णाः) वर्ण (द्विजातयः) द्वि जाति [ कहलाते हैं] ।
अन्वयार्थ :- [
विशेषार्थ :- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों का जन्म से शरीर उत्पन्न है ही । इसके अतिरिक्त गर्भाद्यानादि संस्कारों से भी संस्कृत किया जाता है । अतः आगम में इन्हें द्विजाती कहा है । जाति का अर्थ जन्म है। एक बार स्वभाव से जन्म हुआ और पुनः संस्कारों द्वारा पुनर्जन्म हुआ । अतः 'द्विज' कहा जाता है ।
भगवज्जिन सेनाचार्य ने भी कहा है कि :
द्विजतो हि द्वि जन्मेष्टः क्रियातो गर्भतश्च यः । कि यामन्त्रवहीनस्तु केवलं नाम धारक : | |1 || आ.पु.प. 38 श्लो. 48
अर्थ : एक बार गर्भ से और दूसरी बार गर्भाधानादि संस्कारों से और उनमें प्रयोग किये जाने वाले मन्त्रों से शून्य संस्कार हीन हैं वे केवल नाम से ब्राह्मण हैं वास्तविक नहीं हैं ॥16 ॥
ब्राह्मणों के कर्त्तव्यों का विवरण :
हैं ।
अध्यापनं याजनं प्रतिग्रहो ब्राह्मणानामेव 1 17 ॥
अन्वयार्थ :- (ब्राह्मणानाम्) ब्राह्मणों का ( कर्तव्यम्) कार्य (अध्यापनम् ) पढ़ाना ( याजनम्) पूजा करवाना (प्रतिग्रहः ) दान लेना (एव) ही [ अस्ति ] है ।
गृहस्थों को शास्त्राध्ययन कराना, पूजा विधानादि कराना एवं स्वयं दान लेना ये ब्राह्मणों के निजी कर्त्तव्य हैं । अर्थात् जीविकोपार्जन के साधन I
श्री भगवज्जिनसेनाचार्य जी ने कहा है :
अधीत्यध्यापने दानं जिघृक्षेज्येति तत्क्रिया: 1 / 2आ.पु.श्लो. 246प. 16
अर्थ
:- शास्त्रों का पढ़ना, पढ़ाना, दान देना लेना और भगवद् पूजादि करना कराना ये विप्रों के कर्तव्य
नीतिकार कामन्दक ने भी लिखा है :..
याजनाध्यापने शुद्धे विशुद्धाश्च प्रतिग्रहः । वृत्तित्रयमिदं प्राहुर्मुनियो ज्येष्ठ वर्णिन:
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का. नीतिसार