________________
नीति वाक्यामृतम्
अन्वयार्थ :- (सकृत्) एक बार ही (परिणयन) कन्या विवाह (व्यवहारा:) व्यवहार करने वाले (सच्छूद्राः) सत्-प्रशस्त शूद्र [सन्ति] हैं ।
जिनके कन्याओं का एक ही बार विवाह करने की पद्धति है उन्हें सच्छूद्र-उत्तम शूद्र कहते हैं ।
श्री जिनसेनाचार्य ने शूद्रों के भेद करते हुए कहा है वह इसी ग्रन्थ के "विद्यावृद्ध समुद्देश" की 6वीं नीति में वर्णित हैं वहाँ देखें । कारु और अकारु ये दो भेद कहे हैं - धोबी, नाई और चमार आदि कारु और इनसे भिन्न अकारु कहलाते हैं । कारु के पुनः स्पृश्य और अस्पर्श ये दो भेद हैं । यहाँ सत् शूद्रों का नाम नहीं है परन्तु आचार्य श्री का अभिप्राय यह विदित होता है कि नाई आदिस्पृश्य शूद्रों में जिनके पुनर्विवाह (विधवा-विवाह) नहीं होता वे सत् शूद्र या उत्तम शूद्र कहे जाते हैं । क्योंकि पिण्ड शुद्धि के कारण उनमें योग्यतानुसार धर्म धारण करने की पात्रता है |11॥ प्रणात शूद्रों में भागभी गोरगता -
आचारानवद्यत्वं शुचिरु पस्करः शारीरी च विशुद्धिः ।
करोति शूद्रमपि देव द्विज तपस्वि परिकर्मसु योग्यम् ।। 12॥ अन्वयार्थ :- (अनवद्यत्वम्) निर्दोष (आचारः) आचरण (शुचिरुपस्करः) एक देशव्रत पालन (च) और (शारीरी) शरीर सम्बन्धी (विशुद्धिः) पवित्रता से (शूद्रम्) शूद्र ( अपि) भी (देव, द्विज, तपस्वि) देव, ब्राह्मण और तपस्वियों की (परिकर्मसु) पूजा सेवादि (योग्यम्) योग्य (भवन्ति) हो जाते हैं ।
निर्दोष सदाचरण पालन करने से, - मद्य, मांस, मधु का त्याग करने पर, पाँच अणुव्रत धारण करने से, रजस्वलादि धर्मपालन करना, शरीर वस्त्रादि की शुद्धि रखने से पवित्र विचारादि रखने से सत् शूद्रों को भी यथायोग्य ईश्वर भक्ति, विप्र सेवा व तपस्वियों की सेवा का अधिकार प्राप्त होता है । सबसे प्रमुख पिण्ड शुद्धि है । आचार शुद्धि और गृह के उपकरणों की शुद्धि आदि होने से आचार्य श्री ने तपस्वियों को सेवा योग्य बताया है ।। विशेषार्थ :- चारायण नाम के विद्वान ने कहा है :
गृह पात्राणि शुद्धानि व्यवहारः सुनिर्मलः ।
कायशुद्धिः करोत्येव योग्यं देवादिपूजने ।।।। अर्थ :- घर के पात्रों-बर्तनों की शुद्धि, आचार-विचार की पवित्रता और शारीरिक शुद्धि ये शुभ शूद्रों के गुण हैं। इन गुणों से वे देवादि की पूजा योग्य बन जाते हैं ।।1। योग्यतानुसार ही अधिकार दिये जाते हैं ।। चारों वर्गों के समान धर्मों का वर्णन :
आनृशंस्यममृषाभाषित्वं परस्वनिवृत्तिरिच्छा नियमः प्रतिलोमाविवाहो निषिद्धासु च स्त्रीषु ब्रह्मचर्यमिति सर्वेषां समानो धर्मः ।।13॥ NR अन्वयार्थ :- (आनृशंस्यम्) अहिंसा (अमृषाभासित्वम् ) सत्यभोषण ( परस्वनिवृत्तिः) पर धन नहीं लेना,
184