SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीति वाक्यामृतम् N त्रयी विद्या से होने वाला लाभ : त्रयीतः खलु वर्णाश्रमाणां धर्माधर्म व्यवस्था ।।2।। अन्वयार्थ :- (खलु) निश्चय से (त्रयीतः) त्रयी विद्या द्वारा (वर्णा-श्रमाणाम्) वर्णों और आश्रमों की (धर्माधर्मव्यवस्था) धर्म-अधर्म की व्यवस्था [भवति] होती है । त्रयी विद्या चारों वर्गों और चारों आश्रमों सम्बन्धी धर्म एवं अधर्म की व्यवस्था करती है । विशेषार्थ :- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं । ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति ये चार आश्रम हैं । इनके कर्त्तव्य धर्म, अकर्तव्य अधर्म का ज्ञान कराने वाली त्रयी विद्या है । यशस्तिलक चम्पू में आचार्य कहते हैं - जातिर्जरा मृतिः पुंसांत्रयी संसूतिकारणम् । एषा त्रयी यतस्त्रय्या क्षीयते सा त्रयी मता ॥ अर्थ :- जिस विद्या के द्वारा संसार के कारणभूत जन्म, जरा और मरण इन तीनों के नाश का वर्णन कर्त्तव्य, जिसके द्वारा ज्ञात हो वह त्रयी विद्या है । चूंकि जन्म, जरा और मरण इन तीनों का निरुपण होने से इसे "त्रयी" कहा जाता है। निष्कर्ष यही है कि प्रत्येक वर्ण व प्रत्येक आश्रम में विभज्य मानव समाज अपने-अपने योग्य कर्तव्यों में संलग्न और अकर्तव्यों से विरत होगा तो धर्म से प्रवृत्त और अधर्म से विरक्त होकर जन्म, वृद्धत्व और मरण से मुक्त होगा। यही निर्विरोध है 12॥ त्रयी-विद्या से लाभ :- लौकिक लाभ : स्वपक्षानुराग प्रवृत्या सर्वे समवायिनो लोक व्यवहारेष्वधिक्रियन्ते ।।३॥ अन्वयार्थ :- (स्वपक्षानुराग) अपने पक्ष के अनुराग से (प्रवृत्या) प्रवृत्ति द्वारा (सर्वे) सम्पूर्ण (समवायिनो) वर्णाश्रम (लोक व्यवहारेषु) लोक व्यवहार में (अधिक्रियन्ते) अधिकार प्राप्त करते हैं । विशेषार्थ :- समस्त वर्ण और आश्रमों में विभक्त प्रजा के लोग इस त्रयी विद्या के द्वारा धर्म-अधर्म, कर्तव्याकर्तव्य का भान-ज्ञान कर सत्कार्यों में प्रवृत्ति और असत्कार्यों से निवृत्ति करते हैं । तथा शुभ आचार-विचारों द्वारा आत्मसिद्धि में प्रवृत्त होते हैं । धर्मशास्त्र और स्मृत्ति ग्रन्थों की प्रामाणिकता-निर्देश : धर्म शास्त्राणि स्मृतयो वेदार्थ संग्रहाद्वेदा एव ।। अन्वयार्थ :- (धर्मशास्त्राणि) सिद्धान्त सार (स्मृतयः) आचार सारादि (वेदार्थ) वेद के अर्थ का (संग्रहात्) 11 संग्रह करने से (वेदा) वेद (एव) ही [भवंति] होते हैं । र 175
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy