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नीति वाक्यामृतम्
अथ त्रयी समुद्देश प्रारम्यते
त्रयी विद्या का स्वरूप :
चत्वारो वेदाः, शिक्षा, कल्पो, व्याकरणं, निरुक्तं छन्दो ज्योतिरिति षडङ्गा नीतिहास, पुराण-मीमांसान्याय-धर्म शास्त्रमिति चतुर्दश विद्या स्थानानि त्रयी ॥
अन्वयार्थ :- (चत्वारः) चार (वेदाः) प्रथमानुयोग, करण, चरण और द्रव्य, (शिक्षा) अध्ययन (कल्प:) क्रिया-कलाप (व्याकरणम्) शब्दादि की व्युत्पति का साधन ग्रन्थ (निरुक्तम्) यौगिकादि (छन्दम्) शास्त्र (ज्योतिः) नक्षत्रादि के आधार से ज्ञान कराने वाला शास्त्र ।
चार वेदों के छ अंग हैं - 1, शिक्षा 2. कल्प, 3. व्याकरण 4. निरुक्ति 5. छन्द और 6. ज्योतिष ।
विशेषार्थ :- स्वर व्यञ्जनादि वर्गों का शुद्ध उच्चारण, शुद्धलिपिबद्धता करने वाली कला शिक्षा कहलाती है । आचार्य श्री जिनसेन स्वामी ने लिखा है :
श्रुतं सुविहितं वेदो द्वादशाङ्गमकल्मषम् । हिंसोपदेशि यद्वाक्यं न वेदोऽसौ कृतान्तवाक् ॥1॥ पुराणं धर्मशास्त्रं च तत् स्याद्वधनिषेधि यत् । बधोपदेशि यत्ततु ज्ञेयं धूर्त प्रणेतकम् ॥2॥
आदिपु.पर्व.39.श्लो.22,23.
अर्थ :- निर्दोष अहिंसा धर्म का निरूपक आचाराङ्ग-आदि द्वादशाग श्रुत-शास्त्र जो कि उक्त प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोगों में विभाजित है उसे वेद कहते हैं । परन्तु प्राणी हिंसा का विधायक-समर्थक वाक्य वेद नहीं कहा जा सकता है । उसे तो कृतान्त वाणी समझना चाहिए ।
इसी प्रकार जो प्राणी हिंसा के निषेधक शास्त्र हैं वे ही पुराण और धर्म शास्त्र है । इससे विपरीत जीव । Nहिंसा समर्थक शास्त्र-धूर्तों की रचनाएँ हैं ।
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