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नीति वाक्यामृतम्
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विशेषार्थ :- जो राजा पराक्रम शून्य है और राज कोष भी भरपूर नहीं है, उसका उसकी सेना ही तिरस्कार करने लगती है । प्रजा भी निर्भय होकर उसकी अवज्ञा करने से नहीं चूकती । विद्वान शक्र ने भी कहा है :
शौर्येण रहितो राजा हीनैरप्यभिभूयते ।
भस्मराशि यथानग्निर्निशकैः स्पृश्यतेऽरिभिः ॥1॥ अर्थ :- शौर्य-पराक्रम से विहीन नृपति हीन-साधारणजनों के द्वारा भी पराभूत किया जाता है, पराजित कर दिया जाता है । जिससे अग्नि निकल चुकी है उस भस्म पुञ्ज को निशंकित शत्रुओं द्वारा मर्दन कर दिया जाता है । इसी प्रकार सत्त्वविहीन राजा भी सहज ही परास्त कर दिया जाता है ।
अभिप्राय यह है कि राजा को पराक्रमी, वीर-सुभट होना अनिवार्य है । प्रभुता युक्त होने पर ही अपने उग्र पुरुषार्थ से राज्य को व्यवस्थित कर शत्रुओं का सामना करने में समर्थ हो सकता है ।
विजिगुषी राजा को अपने राज्य की समृद्धि और सुरक्षार्थ पराक्रमी के साथ समृद्ध राजकोष और विशाल सैन्य शक्ति युक्त होना अनिवार्य है 142 || धर्म-प्रतिष्ठा का निरूपण :
तत् पापमपि न पापं यत्र महान् धर्मानुबन्धः ॥3॥ अन्वयार्थ :- (यत्र) जहाँ (महान्) विशालरूप में (धर्मानुबन्धः) धर्मानुष्ठान होते रहते हैं [तत्र] वहां (तत्) वह (पापम्) पाप (अपि) भी (पापम्) पाप (न) नहीं [भवति] होता है ।
यहाँ राजनीति का प्रकरण है । राजा राज्य की सुरक्षार्थ यदि दुष्टों का दमन करता है, कठोर दण्ड भी देता है-छेदन-बन्धन आदि तो भी वह पाप नहीं है क्योंकि उससे मर्यादा का रक्षण, शिष्टों का पालन और धर्म का रक्षण होता है ।
विशेषार्थ :- बाह्य में राजा का कठोर दण्ड पाप रूप दृष्टिगत होता है, परन्तु प्रजा का हित निहित होने से वह पाप नहीं धर्म ही सिद्ध होता है । माता बालक के हितार्थ वलात् उसे कट औषधि पान कराती है, परन्तु वह अयोग्य नहीं माना जाता क्योंकि उसका अभिप्राय उसे स्वास्थ्य लाभ कराने का है न कि कष्ट पहुँचाने का । इसी प्रकार राजा द्वारा दुष्टों-अपराधियों को दण्ड विधान मर्यादा की रक्षार्थ होता है न कि उन्हें कष्ट देनका 1 वादरायण विद्वान ने भी कहा है :
त्यजे हेहं कुलस्यार्थे ग्रामस्यर्थे कुलं त्यजेत् । ग्रामं जनपदस्याथै आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥ पापानां निग्रहे राजा पर धर्ममवाप्नुयात् । न तेषां च बधंबंधाद्यैः तस्य पापं प्रजायते ॥2॥
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