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नीति वाक्यामृतम्
जो शासक पराक्रमी होकर भी दुष्टों के निग्रह में प्रवृत्त नहीं होता, वह जीवन्त भी मरे के समान है।
विशेषार्थ :- उत्साही व्यक्ति ही राज्य की बागडोर सम्हालने में समर्थ होता है । विद्वान शुक्र ने भी कहा ह कि:
परिपन्थिषु यो राजा न करोति पराक्रमम् ।
स लोहकार भरेव श्वसन्नपि न जीवति ॥1॥ अर्थ :- जो भूपति विरोधियों का सामना करने में अपना पराक्रम नहीं प्रदर्शित करता वह लुहार की धौंकनी के समान सांस लेता हुआ भी मृत ही माना जाता है । उससे जीवन का प्रयोजन ही सिद्ध नहीं होता, फिर जीवित कैसे माना जाय ? नहीं माना जा सकता । माघ कवि ने कहा है :
मा जीवन् यः परावज्ञा दुःख दग्धोऽपि जीवति ।
तस्या जननि रवास्तु जननी क्लेशकारिणी ॥1॥ अर्थ :- जो मानव मर्त्यलोक में शत्रओं द्वारा की गई अवज्ञा-तिरस्कार को सहन करता है, उससे अन्तः करण में पीडित होकर भी प्रतिकार नहीं करता । उसका क्लेश पूर्ण जीवन-जीना अच्छा नहीं अपित मर जाना ही उत्तम है । अपने जन्म से उसने व्यर्थ ही माता को जनन का दुःख दिया, उस कायर पुत्र की उत्पत्ति ही नहीं होती तो वही श्रेष्ठ होता । कहा भी है :
या तो साधु पुरुष जन अथवा जने तो शूर । नहीं तो रहियो बांझड़ी मति गंवावे नूर ॥
या तो वह माता धन्य है जो यति पुरुषों को जन्म दे अथवा उसका पुत्रोत्पन्न करना सार्थक है वीर-सुभट पैदा करे। अन्यथा बन्ध्या नि:सन्तान रहना ही उत्तम है कम-से-कम सौन्दर्य तो बना रहेगा । अन्यथा व्यर्थ ही शरीर शक्ति का ह्रास होना है। कायरों का जीवन पशुवत् व्यर्थ ही जाता है । अतः मनुष्य का पराक्रमी होना अनिवार्य
पुनः पराक्रम शून्य की हानि निर्देश करते हैं :
भस्मनीव निस्तेजसि को नाम निः शङ्कः पदं न कुर्यात् ॥42॥ अन्वयार्थ :- (भस्मः) राख (इव) समान (निस्तेजसि) तेज विहीन को (को नाम) कौन पुरुष (नि: शड्कः ) निर्भय-निसन्देह (पदम्) पैर (न) नहीं (कुयात्) करेगा ?
अग्निविहीन भस्म के ढेर पर जिस प्रकार कोई भी निसंकोच लात मार कर निकल जाता है उसी प्रकार सत्त्व हीन-कान्ति विहीन पुरुष का भी कौन तिरस्कार नहीं करता ? अर्थात् सभी करते हैं ।
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