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नीति वाक्यामृतम्
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नहीं करना चाहिए । यथा शक्ति अवश्य धर्मानुष्ठानों में प्रवृत्ति करना चाहिए । आगमोक्त विधि से नियमादि कारण व पालन करना चाहिए । एकान्ततः दयापालन से हानि :
एकान्तेन कारुण्यपरः करतलगतमप्यर्थं रक्षितुं न क्षमः ॥37॥
अन्वयार्थ :- (एकान्तेण) सर्वथा (कारुण्यपरः) करुणा में तत्पर व्यक्ति (करतलगतम्) हथेली पर स्थित (अर्थम्) धन को (अपि) भी (रक्षितुम्) रक्षित करने में (न क्षमः) समर्थ नहीं होता ।
जो व्यक्ति समयानुकूलता को दृष्टि में न रखकर निरन्तर दया का व्यवहार करता है वह अपने हाथ पर रक्खे धन की भी रक्षा करने में समर्थ नहीं होता है ।
विशेषार्थ :- समय-समय में गण व दोष परिवर्तित होना संभव है । दया सर्वत्र हितकर होती है परन्तु कदाच यह भी अहितकर हो सकती है । सदन में तस्कर या दस्यु-डाकू आ धमके और गृहस्थ-घर मालिक यदि दयालु बना चुप बैठा रहे प्रतिकार न करे तो क्या धन-जन का रक्षण कर सकता है ? नहीं । 'शुक्र' विद्वान का कथन भी निम्न प्रकार है :
दया साधुषु कर्तव्या सीदमानेषु जन्तुषु ।
असाधुषु दया शुक्र : स्ववित्तादपि भ्रश्यति ॥1॥ अर्थ :- भूपाल को साधु पुरुषों पर दया करना चाहिए तथा दीन दुखियों की रक्षा में करुणा प्रदर्शित करना चाहिए परन्त दराचारी, पापिष्ठ दुष्टों पर करुणा-दया का प्रयोग शक्र के मतानुसार अपने धन का नाश करना है। अर्थात् दुराचारी मद्य-मांसादि सेवी को दया कर रुपये-पैसे दान करे तो क्या होगा? अधर्म की वृद्धि । क्या यह दया का फल है ? नहीं नहीं कदाऽपि नहीं ।
अभिप्राय यह है कि सर्वत्र विवेक की आवश्यकता है । अविवेक से गुण भी दोष रूप सिद्ध हो जाता है।
सदा शान्त रहने वाले की हानि :
प्रशमैकचित्तं को नाम न परिभवति ? ॥38॥ अन्वयार्थ :- (प्रशमैकचित्तं) सतत् शान्तचित्त रहने वाले को (कोनाम) कौन पुरुष (न परिभवति) तिरस्कार नहीं करता?
एकान्त सतत शान्ति से चुप-चाप रहने वाले पुरुष को संसार में सभी सताने वाले, तिरस्कार करने वाले हो जाते हैं ।
_ विशेषार्थ :- सदैव शान्त चित्त रहने वाले मनुष्य का लोक में कौन पराभव नहीं करता ? अर्थात् उसे कौन नहीं सताता ? कहावत है "अति सर्वत्र वर्जयेत्" अति सर्वत्र दुखदायी होती है ।"अतका भला न बोलना अतिकी
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