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नीति वाक्यामृतम्
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___इससे वह अपने राज्य से चोर, म्लेच्छादि का अभाव करने में समर्थ होगा । राज्य व्यवस्था सुसंगठित होगी । शुक्र ने भी कहा है :
दयां करोति यो राजा राष्ट्र संतापकारिणां । स राज्यभ्रंशमाप्नोति राष्ट्रोच्छे द्दाद्यसंशयम् ।।
अर्थ :- जो राजा देश का अहित व अनिष्ट करने वालों पर भी दया करता है वह अपने राज्य राष्ट्र का निःसन्देह उच्छेद कर देता है । अत: दृष्टों को दण्ड देना अनिवार्य है । अन्यथा वह राज्य को भी खो बैठेगा । मनुष्यों के कर्त्तव्य सर्वथा निर्दोष नहीं होते इसका निरुपण :
न खल्वेकान्ततो यतीनामप्यनवद्यास्ति क्रिया ।।36॥
अन्वयार्थ :- (खलु) निश्चय से (यतीनाम्) साधुओं की (अपि) भी (क्रिया) कर्त्तव्य (एकान्ततः) एकान्त से-सर्वथा (अनवद्याः) निर्दोष (न) नहीं (अस्ति) होती है ।
तपस्वी साधजनों के कर्तव्य-क्रियाकाण्ड भी सर्वथा निर्दोष नहीं पाये जाते । कहीं न कहीं अतीचारादि लग ही जाते हैं फिर सर्व साधारण जन की तो बात ही क्या है ? अर्थात सदोष कर्तव्य हो ही सकते हैं ।
विशेषार्थ :- यति हों या श्रावक सबके निर्धारित कर्तव्य होते हैं । वे सावधान रहकर क्रिया करते हैं तो भी सूक्ष्म दोष कहीं न कहीं लगना संभव है । सामान्य जन असि, मसि, विद्यादि आरम्भादि करते हुए धर्मध्यानादि करते हैं फिर उनके कार्यों में तो दोष लगना स्वाभाविक ही है । आचार्य गुणभद्रस्वामी जी ने कहा है कि :
शुद्धैर्धनैर्विवर्धन्ते सतामपि न सम्पदः । न हि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णाः कदाचिदपि सिन्धवः 1145॥
आ.नु.शा.
अर्थ :- सत्पुरुषों की भी सम्पत्ति पूर्णत: निर्दोष उपायों से वृद्धिंगत नहीं होती है । जिस प्रकार सागर पूर्ण शुद्ध परिपूर्ण नदियों से प्रपूरित नहीं होता । कितनी ही वृहद्-प्रवाहित नदियाँ भी कुछ न कुछ कूड़ा-कचरा लेकर ही आती हैं। उसी प्रकार न्याय नीति से अर्जित भी धन सम्पदा कुछ न कुछ आरम्भजन्य पाप मिश्रित होती है । वर्ग विद्वान ने भी लिखा है :
अनवद्या सदा तावन्न खल्वेकान्ततः क्रिया ।
यतीनामपि विद्येत तेषामपि यतश्च्युतिः ॥1॥ अर्थ :- साधु-सन्तों के व्रतानुष्ठानादि भी सर्वधा निर्दोष नहीं होते हैं क्योंकि वे भी अपने पदस्थ कार्यों से । कदाचित्-क्वचित् च्युत हो जाते हैं । फिर भला साधारण जन की बात ही क्या है ?
भाव यह है कि व्रत, नियम, तप जपादि में कहीं दोष न लग जाय इस भय से नियम व्रत न लें ऐसा विचार
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